Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 54
________________ ४५ नववाँ बोल नहीं; ज्ञान उपयोगरूप धन किसी से हरण नहीं किया जा सकता है अथवा किसी से लूटा नहीं जा सकता है। अप्रतिहत उपयोग ज्ञान-उपयोग का स्वरूप पर के द्वारा घात होनेवाला नहीं है; क्योंकि परपदार्थ ज्ञान में कुछ भी कर सकने में असमर्थ हैं, परन्तु ज्ञान का जो उपयोग अपनी पर्याय की निर्बलता से होते हुए राग के कारण हीन होता है, वह बात भी यहाँ नहीं ली है और उसे उपयोग ही नहीं कहा है; क्योंकि जो उपयोग चैतन्यस्वभाव के आश्रय से कार्य करता है और उसका ही आश्रय लेता है उस उपयोग में राग ही नहीं है तो फिर वह किसप्रकार हीन हो? स्व के अवलंबन पूर्वक का उपयोग आत्मा में एकाकार होता है, उसे ही यहाँ उपयोग कहा है। जिस उपयोग का पर से भी हरण नहीं होता है, उसका स्व से कैसे हरण किया जा सकता है? जो उपयोग च्युत होता है, उसे यहाँ उपयोग ही नहीं गिना है, परन्तु चैतन्य के आश्रय से एकाकार होकर वृद्धि को प्राप्त होता है, ऐसे अप्रतिहत उपयोग को ही उपयोग कहा है। जो निमित्तों में तथा राग में अटकता है, वह उपयोग ही नहीं है। जो जीव अपना स्वरूप नहीं समझते हैं, वे अनात्मा हैं । जो उपयोग स्वद्रव्य का आश्रय नहीं करता है और पर में भ्रमण किया करता है, उसे उपयोग ही नहीं कहते हैं । जिसप्रकार आत्मा अनादि-अनंत है, वह किसी के कारण है ही नहीं; उसीप्रकार उपयोग भी बाहरी कारण से लाया जाय, बढ़े अथवा घटे उसका ऐसा स्वरूप ही नहीं है। जो उपयोग अपने द्रव्य का आश्रय नहीं छोड़ता, और पर का आश्रय नहीं लेता, वही उपयोग है। द्रव्य का आश्रय नहीं छोड़ता अर्थात् स्वभाव में एकाकार होता हुआ वृद्धि को ही प्राप्त होता है तथा पर का आश्रय नहीं करता अर्थात् कभी भी हरण नहीं किया जा सकता, उपयोग का ऐसा स्वरूप है। जो निमित्तों तथा राग में अटकता है (रुकता है) वह उपयोग ही नहीं है।

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