Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ ४४ अलिंगग्रहण प्रवचन नववाँ बोल न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं परेण हरणं यस्येत्यहार्यज्ञानत्वस्य। अर्थ :- जिसे लिंग का अर्थात् उपयोग नामक लक्षण का ग्रहण अर्थात् पर से हरण नहीं हो सकता, (अन्य से नहीं ले जाया जा सकता) सो अलिंग ग्रहण है; इसप्रकार आत्मा के ज्ञान का हरण नहीं किया जा सकता', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। अज्ञानी का उपयोग सम्बन्धी भ्रम ___ अज्ञानी मानता है कि घर में पुत्रों ने कलह की, अतः मेरा ज्ञान च्युत हो गया, शरीर रोगी होने से ज्ञान घट गया, ध्यान में बैठा था उस समय कोई तलवार से शरीर को मारने के लिये आया; अत: मेरा उपयोग हीन हो गया; हमें तो बहुत ध्यान करना था; परन्तु भाई! क्या करें, स्त्री-पुत्र कोलाहल करते हैं, लड़के बाजा बजाते हैं, अतः हमारा उपयोग च्युत हो जाता है। परिषह होता है, तब भी हमारा उपयोग काम नहीं करता है । सात्त्विक भोजन लेते हैं तब तक उपयोग अच्छा रहता है, परन्तु हलका भोजन खाते हैं तो उपयोग खराब हो जाता है, कान में कीड़ा काटता हो - ऐसी गाली सुनने से उपयोग च्युत हो जाता है, शरीर का संहनन शक्तिशाली हो तो उपयोग अच्छा काम करता है – इसप्रकार अनेकप्रकार के उपयोग सम्बन्धी भ्रम का अज्ञानी सेवन करता है। कोई उपयोगरूपी धन का हरण नहीं कर सकता है। ___ ये सब अज्ञानी का भ्रम है। बाहर के जड़ अथवा चेतन पदार्थों का आत्मा में अत्यन्त अभाव है। वे आत्मा के उपयोग का घात कैसे कर सकते हैं? घात ही नहीं कर सकते हैं। अनुकूल संयोगों से ज्ञान उपयोग बढ़े और प्रतिकूल संयोगों से घटे तथा जड़कर्म मंद हो तो उपयोग बढ़े और कर्म का उदय तीव्र हो तो उपयोग हीन हो जाय, उपयोग का ऐसा स्वरूप ही नहीं है। लोक में कहते हैं कि चोर किसी की अमुक वस्तु लूट ले गया अथवा हरण कर ले गया, उसीप्रकार यह उपयोगरूपी धन कोई लूट लेता होगा क्या?

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