Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 25
________________ १६ अलिंगग्रहण प्रवचन छहों द्रव्य अपने प्रमेयत्व गुण के कारण किसी न किसी ज्ञान के विषय होते हैं, ऐसा कहा है; परन्तु इन्द्रियों द्वारा ज्ञात हों, ऐसा इनका स्वरूप नहीं है। आत्मवस्तु ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनन्त शक्तियों का पिंड है। यह प्रमेय, इन्द्रियों का विषय हो, ऐसा नहीं है। आत्मा प्रमाता और प्रमेय दोनों है । जगत के पदार्थ प्रमेय हैं, इन्द्रियाँ प्रमेय हैं। उस प्रमेय में भी ऐसी शक्ति नहीं है कि वह आत्मा को जाने और आत्मा स्व- प्रमेय है, उसका स्वभाव ऐसा नहीं है कि वह इन्द्रियों से ज्ञात हों । प्रश्न : तो फिर इन्द्रियाँ जीव को क्यों मिली हैं? तथा उसे इन्द्रियवाला क्यों कहा है ? उत्तर : किसी पदार्थ को कोई अन्य पदार्थ मिलता नहीं है। कोई पदार्थ अन्य पदार्थ में न जाता है न आता है। जगत के ज्ञेयपदार्थ अपने कारण से आते हैं और जाते हैं । परमाणु की पर्याय आत्मा के एक क्षेत्र में आई, उसकी पहिचान कराई है। निश्चय से इन्द्रियाँ परमाणु की पर्याय हैं; परन्तु उसकी वर्तमान पर्याय में पुद्गल की अन्यपर्याय से भिन्नता है; अत: उसकी इन्द्रियरूप से पहिचान कराई है। निश्चय से पुद्गल परमाणुओं में अन्तर नहीं है । इन्द्रियज्ञान का कथन व्यवहार से इन्द्रियों का संयोग बताने के लिये है; परन्तु उनसे ज्ञान होता है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है । परन्तु जीव के उघाड़ की योग्यता के समय इन्द्रियाँ निमित्तरूप होती हैं, उनका ज्ञान कराया है। ज्ञान से आत्मा ज्ञात हो, ऐसा श्रद्धा स्वीकार करती है । आत्मा स्वयं प्रमेय है । स्वयं इन्द्रियों द्वारा ज्ञात हो, ऐसा प्रमेय पदार्थ नहीं है, अत: यह इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है, परन्तु ज्ञानप्रत्यक्ष का विषय है। यह सम्यग्दर्शन अधिकार है । आत्मा श्रद्धा का अर्थात् सम्यग्यदर्शन का विषय है, अतः श्रद्धा इसप्रकार स्वीकार करती है कि इन्द्रियों से ज्ञात हो, ऐसा आत्मपदार्थ नहीं है; परन्तु ज्ञानप्रत्यक्ष से ज्ञात हो, ऐसा आत्मपदार्थ है। स्वाश्रय द्वारा श्रद्धा का इसप्रकार स्वीकार करना धर्म है । ऐसी श्रद्धा और ज्ञान बिना व्रत-तप आदि सच्चे नहीं हो सकते।

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