Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ अलिंगग्रहण प्रवचन अलिंगग्रहण का अर्थ ___ अलिङ्गग्राह्य इति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तद्बहुतरार्थप्रतिपत्तये। तथाहि :- जहाँ अलिंगग्राह्य' कहना है वहाँ जो अलिंगग्रहण कहा है, वह बहुत से अर्थों की प्रतिपत्ति (प्राप्ति, प्रतिपादन) करने के लिये है। वह इसप्रकार है :___ अलिंगग्रहण अर्थात् पर चिह्न द्वारा अथवा पर लिंग द्वारा जीव का अनुभव नहीं किया जा सकता है, किसी चिह्न से अथवा निमित्त से आत्मा का पता लग सकता नहीं। 'अलिंगग्राह्य' ऐसा कहना है, वहाँ जो 'अलिंगग्रहण' कहा है, वह अनेक अर्थों की प्राप्ति के हेतु है। अनेक अर्थों का प्रतिपादन करने के लिये 'अलिंगग्रहण' शब्द वाचक है और उस शब्द द्वारा कहने योग्य भाव वह वाच्य है। उस भाव को जानकर आत्मा को लिंग से भिन्न करना और निर्णय करना धर्म है। ... _पहला बोल न लिंगैरिन्द्रियैाहकतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः। अर्थ :- ग्राहक (ज्ञायक) जिसके लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा इन्द्रिय द्वारा नहीं जानता है। आत्मा स्व तथा पर को इन्द्रियों से नहीं जानता है । स्व-पर दोनों ज्ञेय हैं। स्व-पर ज्ञेयों के ज्ञाता ऐसे आत्मा को इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता है। यहाँ अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रसिद्धि है। ___ "चाबी देने से घड़ी चलती है, आत्मा है तो शरीर चलता है, अग्नि थी तो पानी गर्म हुआ, पेट्रोल था तो मोटर चली, स्त्री थी तो रोटी बनी, हाथ था

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