Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ पहला बोल तो लकड़ी ऊँची हुई, इसप्रकार प्रत्यक्ष इन्द्रियों से दिखाई देता है" - अज्ञानी इसप्रकारं तर्क करता है। __परन्तु यह मान्यता भूल भरी है, अज्ञानी जीव, इन्द्रियों की आड़ सहित संयोगों को देखता है। ज्ञान संयोग का नहीं है, ज्ञान इन्द्रिय का नहीं है, परन्तु ज्ञान आत्मा का है - ऐसा नहीं मान कर, इन्द्रियों से ज्ञान होता है, ऐसा जो मानता है वह संयोग को देखता है। आत्मा का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव है। पर को भी इन्द्रियों से जानना, ऐसा उसका स्वभाव नहीं है । स्व को तो इंद्रियों से नहीं जानता है और परपदार्थों का भी आंख, कान, नाक आदि पाँच इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता है। स्व-पर प्रकाशक ज्ञानस्वभाव, स्वयं से है; इंद्रियों से नहीं। प्रश्न : आँख से मोतिया उतरवाना कि नहीं? मोतिया उतरवाते हैं तो दिखता है और नहीं उतरवाते हैं तो नहीं दिखता।। उत्तर : भाई, मोतिया उतरवाने के पहले या पीछे आँख से नहीं दिखाई देता है। आत्मा में ज्ञान है, इन्द्रियों में ज्ञान नहीं है । मोतिया उतरवाने से पहले भी अपने ज्ञान के उघाड़ की योग्यता अनुसार जानता है और पीछे भी अपनी योग्यता अनुसार जानता है। स्वयं का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव क्या इन्द्रियों के कारण है? परप्रकाशकस्वभाव क्या इंद्रियों के कारण है? नहीं, ज्ञानस्वभाव इन्द्रियों का नहीं है, इन्द्रियों के कारण नहीं है। स्व और पर दोनों को जानने का स्वयं का स्वभाव है, उसे चूक कर (उससे च्युत होकर) अज्ञानी जीव इन्द्रियों द्वारा ज्ञान होता है – ऐसा मानता है, वह भ्रम है। ज्ञायक स्वभाव की प्रतीति रूप'नाक'(प्रतिष्ठा) बिना ज्ञान सम्यक् नहीं होता। बाजार में कोई भी ग्राहक माल लेने जाये तो माल लेने के लिए उसके पास नगद रुपया अथवा 'नाक' अर्थात् 'प्रतिष्ठा' होनी चाहिये। नगद रुपयों से माल मिलता है और रुपया न हो तो 'नाक' (प्रतिष्ठा) से माल मिलता है;

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