Book Title: Aling Grahan Pravachan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ पहला बोल अर्थ समझना।नय के अर्थ शास्त्र नहीं बोलते हैं ; परन्तु आत्मा अपने ज्ञान द्वारा भिन्न-भिन्न अपेक्षा समझ लेता है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अप्रमाण नहीं हैं; परन्तु प्रमाण ज्ञान हैं, इसप्रकार स्वाश्रय द्वारा यथार्थ समझना चाहिये। आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानमय है। इस पहले बोल में अलिंगग्रहण का अर्थ इसप्रकार है-अ-नहीं, लिंगइंद्रियाँ और ग्रहण जानना । अर्थात् आत्मा को इन्द्रियों द्वारा ज्ञान नहीं होता, अतः अलिंगग्रहण है । अतः आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञानमय है, ऐसे भाव की प्राप्ति होती है। अतीन्द्रिय ज्ञानमय अर्थात् इन्द्रिय और मन रहित है, ऐसा निर्णय होता है। कब? केवलज्ञान होने के बाद? नहीं। केवलज्ञानी तो अतीन्द्रिय ज्ञानमय ही है; परन्तु छद्मस्थ जीव छद्मस्थदशा में भी इन्द्रियों द्वारा नहीं जानता है। इसप्रकार होने पर भी 'मैं इन्द्रियों से जानता हूँ' ऐसा अज्ञानी अज्ञान के कारण मानता है, यह मान्यता संसार है। अतः जो इन्द्रियों पर से लक्ष हटाकर, ज्ञायकस्वभाव का लक्ष करे, उसे यथार्थ में अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति स्वयं में होती है। जो स्व को जानता है, वही देव-शास्त्र-गुरु को यथार्थ जानता है। प्रश्न : इसप्रकार स्वतंत्र मानने से एक-दूसरे की कोई सहायता नहीं लेगा, शुष्क हो जायेगा और देव-शास्त्र-गुरु को नहीं मानेगा तो? उत्तर : भाई! ये सब तेरी भ्रमणा है। जो यथार्थ जानता है, वही देवशास्त्र-गुरु को यथार्थ समझता है; क्योंकि देव-शास्त्र-गुरु कहते हैं कि तू तेरे ज्ञायकस्वभाव से जानता है, इन्द्रियों से अथवा देव, शास्त्र, गुरु से नहीं जानता है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों की स्व-पर को जानने की शक्ति स्वयं से है। इसप्रकार जो अपने ज्ञानस्वभाव को यथार्थ जानता है वही जीव पर को यथार्थ जानता है । देव-शास्त्र-गुरु आदि पदार्थों का अस्तित्व है, इसलिये पर ज्ञात होते हैं; यह बात सत्य नहीं है, परन्तु स्व आत्मा को जानने पर स्व में पर पदार्थ ज्ञात होते हैं, ऐसी सच्ची प्रतीति और ज्ञान में ही केवलज्ञान का विकास है।

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