Book Title: Agam Suttani Satikam Part 05 Bhagvati
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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४१०
भगवतीअगसूत्रं ८/-10/४१४ ____ गोयमा ! इत्थिपच्छाकडोवि बंधइ १ पुरिसपच्छाकडोवि बं० २ नपुंसगपच्छाकडोवि बं०३ इत्थीपच्छाकडाविबं० ४ पुरिसपच्छाकडाविबं०५ नपुंसकपच्छाकडाविबं०६अहवा इत्थीप-च्छाकडा पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ७ एवं एए चेव छव्वीसं भंगा भानियव्वा, जाव अहवा इस्थि-पच्छाकडायपुरिसपच्छाकडाय नपुंसगपच्छाकडाय बंधंति।
तंभंते! किंबंधी बंधइ बंधिस्सइ १ बंधी बंधइन बंधिस्सइ २ बंधी नबंधइबंधिस्सइ३ बंधी नबंधइन बंधिस्सइ ४ नबंधी बंधइ बंधिस्सइ ५ न बंधी बंधइन बंधिस्सइ ६ नबंधीन बंधइ बंधिस्सइ ७ नबंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ८?
गोयमा !भवागरिसं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं तं चेव सव्वं जाव अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ, गहमागरिसं पडुच्च अत्यंगतिएबंधी बंधइबंधिस्सइएवंजाव अत्थेगतिएनबंधी बंधइबंधिस्सइ, नोचेवणंनबंधी बंधइनबंधिस्सइ, अत्थेगतिएनबंधीनबंधइबंधिस्सइ अत्यंगतिए नबंधी नबंधह नबंधिस्सह
तंभंते! किं साइयं सपञ्जवसियं बंधइ साइयं अपज्जवसियंबंधइ अनाइयं सपज्जवसियं बंधइ अनाइयं अपज्जवसियंबंधइ?, गोयमा! साइयंसपज्जवसियंबंधइनोसाइयंअपज्जवसियं बंधइ नो अनाइयं सपज्जवसियं बंधइ नो अनाइयं अपज्जवसियंबंधइ।
तंभंते ! किं देसेणं देसंबंधइ देसेणं सव्वं बंधइ सव्वेणं देसंबंधइ सव्वेणं सव्वं बंधइ?, गोयमा ! नो देसेणं देसंबंधइ नो देसेणं सव्वंबंधइनो सब्वेणं देसंबंधइ सव्वेणं सव्वं बंधइ ।।
वृ.आज्ञाराधकश्च कर्मक्षपयतिशुभंवातद्वघ्नातीति बन्दं निरूपयन्नाहा-'कई त्यादि, 'बंधे'त्ति द्रव्यतो निगडादिबन्धो भावतःकर्मबन्धः, इहचप्रक्रमात्कर्मबन्धोऽधिकृतः 'ईरियावहियाबंधे यत्तिईर्या-गमनंतप्रधान- पन्था-मार्गईर्यापथस्तत्रभवमैर्यापथिकं-केवलयोगप्रत्ययं कर्मतस्ययोबन्धःसतथा, सचैकस्य वेदनीयस्य, 'संपराइयबंधेय'ति संपरैति-संसारंपर्यटति एभिरिति सम्परायाः-कषायास्तेषु भवं साम्परायिकं कर्म तस्य यो बन्धः स साम्परायिकबन्धः कषायप्रत्यय इत्यर्थः, स चावीतरागगुणस्थानकेषु सर्वेष्विति ।
'नोनेरइओ'इत्यादि, मनुष्यस्यैवतद्वन्धो, यस्मादुपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगकेवलिनामेव तद्वन्धनमिति, 'पुवपडिवन्नए'इत्यादि, पूर्व-प्राक्कालेप्रतिपन्नमैर्यापथिकबन्धकत्वंयैस्तेपूर्वप्रतिपन्नकास्तान्, तद्वन्धकत्वद्वितीयादिसमयवर्तिन इत्यर्थः, तेच सदैव बहवः पुरुषाः स्त्रियश्च सन्ति उभयेषांकेवलिनांसदैवभावादत उक्तं मणुस्सायमणुस्सीओयबंधंति'त्ति, पडिवजमाणए'त्ति प्रतिपद्य-मानकान्एपिथिककर्मबन्दनप्रथमसमयवर्तिन इत्यर्थः, एषांचविरहसम्भवाद्एकदा मनुष्यस्य स्त्रियाश्चैकैकयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारो विकल्पाः, द्विकसंयोगे तथैव चत्वारः, एवमेते सर्वेऽप्यष्टौ, स्थापना चेयमेषाम्-पु०१ स्त्री पुं३० स्त्री ३ ।
__एतदेवाह-'मणुस्से वा इत्यादि, एषां च पुंस्त्वादि तत्तल्लिङ्गापेक्षया न तु वेदापेक्षया, क्षीणोपशान्तवेदत्वात् । अथ वेदापेक्षं स्त्रीत्वाद्यधिकृत्याह
'तं भंते ! कि'मित्यादि, 'नो इत्थी'इत्यादि च पदत्रयनिषेधेनावेदकः प्रश्नितः, उत्तरे तु षन्नां पदानां निषेधः सप्तमपदोक्तस्तु व्यपगतवेदः, तत्र च पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाच भवन्ति, तत्र पूर्वप्रतिपन्नकानां विगतवेदानां सदा बहुत्वभावात् आह- 'पुव्वपडिवन्ने'त्यादि,
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