Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni Publisher: Atmagyan PithPage 11
________________ - - करने की तीव्र इच्छा प्रकट की । माता-पिता और परिवार के बहुत आग्रह पर भी आप अपनी दृढ़ भावना से चलित नहीं हुए। पक्का वैराग्य साधना का मार्ग स्वयं ही ढूढ़ लेता है । आखिर आप भी एक दिन घर से निकल पड़े, गुरु की खोज में । एक मन्दिर में पहुँचे, एक सनातनी संत के दर्शन हुए। आपने. साधु बनने की इच्छा प्रकट की। संत आपके सुन्दर तेजस्वी रूप व विनम्र बुद्धिशाली स्वरूप को देखकर पुलकित हो गये । आप सनातनी साधु बन गये। गुरुजी ने नये साधु को अपने नियम आदि समझाये । उन्हें अपने साधुओं के विशाल डेरे पर-भीलपुर ले गये। यह मीलपुर राजपुरा से लगभग दो माइल दूर है । गुरुजी इस डेरे के महंत थे । गाँव में उनका बड़ा प्रभाव था। जयरामदासजी को योग्य समझकर उन्होंने डेरे का महंत बना दिया और स्वयं अन्यत्र यात्रा पर चले गये। जयरामदासजी का प्रभाव शीघ्र ही बड़ी तेजी से बढ़ता गया। सर्वसाधारण इन्हें 'बाबाजी' के नाम से हो जानने लगे। आपका · बाबाजी नाम इतना लोकप्रिय व प्रसिद्ध हो गया कि जैन साधु बनने के बाद भी आप 'बाबाजी महाराज' नाम से पुकारे जाते थे। हाँ तो, बाबाजी महाराज के एक मित्र थे पंडित जीवाराम । ये विद्वान भी थे, और साधु-सन्तों का सत्संग भी करते रहते थे। बाबाजी महाराज भी तत्त्वजिज्ञासु और ज्ञान की खोज में लगे हुए थे। पं० जीवारामजी से. आपकी ज्ञान-चर्चा होती रहती थी। पं० जीवारामजी ब्राह्मण होकर भी जैन सन्तों से विशेष प्रभावित थे । वे सभी ज्ञानी और चारित्रवान साधुओं की भक्ति करते, जैन साधुओं के आचार-विचार व ज्ञान के प्रति वे खास श्रद्धा और सम्मान रखते थे। पं० जीवारामजी एक बार राजपुरा गये । वहाँ परम श्रद्धय आचार्य पूज्यश्री मोतीरामजी महाराज के विद्वान शिष्य श्रद्धेय स्वामी गणपतिरायजी विराजमान थे। आप त्याग-वैराग्य की साकार मूर्ति थे । ध्यान-तप-जप के पहुंचे हुए अभ्यासी थे। पं० जीवारामजी स्वामी गणपति रायजी महाराज के सत्संग में आये तो बस, मुग्ध हो गये । आपके साथ ज्ञानचर्चा करके और आपकी पवित्र आचार क्रिया, साधना देखकर पं० जीवारामजी उनके भक्त बन गये । पं० जीवारामजी एक दिन रात के समय बाबाजी महाराज के सत्संग में आये। चर्चा चलने पर उन्होंने स्वामी गणपतिरायजी महाराज की प्रशंसा करते हुए कहासाधु हो तो वैसा ही हो, बहुत ही त्यागी, विरागी और विद्वान ! स्वामीजी की प्रशंसा सुनकर तत्त्वजिज्ञासु बाबाजी का मन भी उनके दर्शनों के लिए लालायित हो उठा । वे भी स्वामीजी के सत्संग के अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। बाबाजी महाराज अकेले ही राजपुरा पहुँच गये और स्वामीजी के निवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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