Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 10
________________ महान तपोयोगी स्वामी श्री जयरामदासजी म० [ जीवन परिचय ] भगवान महावीर ने कहा है जहा पोमं जलेजायं नोवलिप्पs वारिणा । एवं अलित्तं कामेह तं वयं बूम माहणं ॥ जिस प्रकार कमल जल में पैदा होकर भी जल से अलिप्त -- ऊपर रहता है | वैसे ही संसार में जन्म लेकर जो साधक संसार की विषय-वासना से अलिप्त - निर्लेप रहता है, उसे हम ब्राह्मण / श्रमण कहते हैं । वास्तव में साधक वही है जो संसार में रहता हुआ भी संसार से मुक्त -- विरक्त रहता है । स्वर्गीय तपोयोगी स्वामी श्री जयरामदासजी म० भी एक ऐसे ही निर्लेप --- निःस्पृह कमल - सम जीवन जीने वाले आदर्श साधक थे । आपका जन्म वि० सं० १९२० में रूपाहेड़ी ग्राम (पंजाब) में हुआ । आपके पिता श्री नोखामलजी वैश्य वंश के सम्मानित सद्गृहस्थ थे । माता श्री भोलीदेवी परम धर्मशीला थी । नोखामलजी के तीन पुत्र व एक पुत्री थी । श्री जयरामदासजी सबसे बड़े थे। छह वर्ष की आयु में आप गाँव की पाठशाला में विद्याध्ययन हेतु गये । बचपन से ही आप सरल - विनम्र वृत्ति के थे । बुद्धि बड़ी तीव्र थी और आप गुरुजनों के आज्ञाकारी थे । इसलिए जल्दी ही पढ़-लिखकर होशियार हो गये । श्री जयरामदासजी के पूर्वजन्म के ऐसे शुभ संस्कार थे कि वे बचपन से ही विरक्त और शांत स्वभाव के थे । संसार के खेल-कूद, खान-पान, विषय - तृष्णा आदि में उन्हें कोई दिलचस्पी और लगाव नहीं था । सदा एकान्त में बैठना, प्रभु नाम स्मरण करना, शान्ति और प्रसन्नता से मुस्कराते रहना, किसी प्रलोभन या लालच में नहीं फँसना - यह आपके स्वाभाविक गुण थे । तीव्र बुद्धि, सुडौल गौर गठित शरीर, तेजस्वी आँखें और निखरता रंग-रूपसब को बहुत ही प्यारा लगता था। माता-पिता ने विवाह करने की बात की तो जयरामदासजी ने स्पष्ट इन्कार करके संसार - विरक्ति और साधु बनकर आत्म-साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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