Book Title: Adhyatmik Hariyali Author(s): Buddhisagar Publisher: Narpatsinh Lodha View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * दा शब्द * ध्यान-योगीयों में यह भाषा बहुत ही प्रचलित है- करीब २००० वर्षों से यह भाषा-योगीयों द्वारा-एक दूसरे योगी या-शिष्य को समझाने में उपयोग होती रही। कबीर और दूसरे ध्यान-योगीयों ने इस संधा-भाषा या सैना-बैना और "उलटबाँसीया" कहा है । कबीर की "उलटबाँसीया" बहत प्रसिद्ध है। ये ज्यादातर पद्यों में है। उलट बाँसीया यानी बाँस को उलटना। उल्टो को सीधा करने का जबाव देना । ये भाषा अजब है। चीनी ध्यान साहित्य में तो ऐसी भाषा की भरमार है। ऐसे विचित्र भाषा प्रसंगों की करीब ६०० जिल्द मिलती है। इन्हें वे "कोआन" कहते हैं । जब इन ध्यानियों ने जापान में प्रवेश किया तो ये "को-आन" वहाँ भी प्रचलित हो गये। ये रहस्य मय संकेत ज्यादातर गुरु शिष्य के प्रश्नोत्तर में ही होते थे। साधारण जन को थोड़ा कठिन अवश्य होता था-पर रोचक भी। जैन परम्परा में भी ऐसे अनेक ध्यान योगी हुए हैं। जिनमें आनन्द घन का पहला स्थान है। इन्होंने ऐसे अनेक पद संघा-भाषा (संकेतिक भाषा) में कहे हैं जो साधारण तथा समझने में मुश्किल है क्योंकि भाषा लोकिक पर अर्थ है-लोकोत्तर । और कभी कभी तो परिपक्व बुद्धिमान भी अर्थ का अनर्थ कर लेते हैं । या फिर इन्हें सस्ता, मनोरंजन, कहकर टाल देते हैं। और इसका कारण है कि इसके पीछे छीपे रहस्य पर हम ध्यान न देकर सिर्फ शब्दों पर ही ध्यान देते हैं या अपने परिवेश में ही देखते हैं। For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 87