Book Title: Adhyatmik Hariyali
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Narpatsinh Lodha

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 9 ) आया ।।३॥ बिना दीपक के भी प्रकाश होता है, चिउटी के बिल में हाथी समा रहा है ॥४॥ अग्नि बरस रही है और पानी जल रहा है, कायर योद्धा घमंड में जीता है ॥५॥ उस पुत्री ने पिता को जन्म दिया, उसने उसके जंवाई को जन्म दिया ॥६॥ मेह बरसने पर बहुत धूल उड़ती है, लोहा तरता है और तृण डूबता है ॥७॥ घाणी नहीं घूमती, तेल घूमता है और घाणी पीनी जाती है, चक्की दाने बन कर दली जा रही है ।।८।। बीज के फल लगता है और शाखा उगती है, तालाब के समक्ष समुद्र नहीं पहुँच सकता ॥६॥ कीचड़ जलता है और सरोवर जमता है, वहाँ मनुष्य बहुत भटकता है, जहाँ अधिक विश्राम मिलता है ॥१०॥ जहाज पर समुद्र चलता है, हरिण के बल से पर्वत हिलता है ।।११।। या तो सोच कर इसका अर्थ कहें, वरना कोई गर्व न करें ।।१२।। श्री नय विजय के शिष्य ने इस मनोरंजक हरियाली की रचना की हैं ।।१३।। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि जो इस हरियाली को पढेंगे वे सुख को प्राप्त करेंगे ॥१४॥ हरियाली (२) सखी रे में तो कौतुक दीढं, साधु सरोवर झीलता रे । स. । नाके रूप निहालता रे स., लोचनथी रस जाणता रे ॥स.॥१॥ मुनिवर नारी सुं रमे रे स., नारी हिंचोले कंथने रे । स.॥ कंथ घणा एक नारी ने रे स., सदा यौवन नारी ते रहेरे ।स.॥२॥ वेश्या विलुद्धा केवली रे स., प्रांख विना देखे घणुं रे । ऊ. । रथ बेठा मुनिवर चले रे स., हाथ जले हाथी डुबोया रे॥स.॥३॥ कूतरिये केसरी हण्यो रे स., तरस्यो पाणी नवि पोये रे । स. । पग विहुणो मारग चले रे, स. नारी नपुंसक भोगवे रे ॥स.॥४॥ अंबाडी खर उपरे रे स., नर एक नित्य उभो रहे रे । स. । For Private And Personal Use Only

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