Book Title: Adhyatmik Hariyali
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Narpatsinh Lodha

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Page 55
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३७ ) है, उन्हें क्षय कर रही है। आत्मा जहाज के समान बलवान है और कर्म समुद्र के समान है । जब कर्म शक्तिशाली होते हैं तब आत्मा उछलती है किंतु कर्म रूपी समुद्र उसे डुबो देता है। यह जीव हरिण के समान है किंतु अपनी शक्ति से पहाड़ जैसे कर्म को हिला देता है, उसका क्षय कर देता है ।। ३ ।। मेह वरसंतां बहु रज उडे, लोह तरे ने तरj बूडे । एहनो अर्थ विचारी कहेजो, नही तर गर्व कोइ मत वहेजो।क०।४। अर्थ :- जब ज्ञान रूपी मेंह की वर्षा होती है, तब कर्म रूपी रज उड़ जाती है, तब अष्ट कर्म क्षय हो जाते हैं । तब लोहे के समान भारी आत्मा तैरती है और तृण के समान कर्म डूबते हैं अथति क्षय हो जाते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति इस पद्य का अर्थ विचार कर कहें, अन्यथा गर्व करना छोड दें ।। ४ ।। श्री नय विजय गणिने शीष्ये, कही हरियाली मनह जगीसे । ऐ हरियाली जे नर कहस्ये, वायक जस कहे ते सुख लहस्ये ॥क०॥५॥ अर्थ :- पं० श्री नयविजय गरिण के शिष्य ने इस हरियाली को अपने मन को हर्षित करने के लिये रचा । उपाध्याय श्री यशोविजयजी कहते हैं कि जो मनुष्य इस हरियाली को पढेंगे, वे सुख को प्राप्त होंगे ।५। ॥ इति हरियाली सम्पूर्ण । For Private And Personal Use Only

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