Book Title: Adhyatmik Hariyali
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Narpatsinh Lodha

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के एक पद का भावार्थ के (विरचित : श्रीमद् अध्यात्मयोगी आनन्दघनजी महाराज) संग्राहक : मुनिराज श्री यशोभद्र विजयी (राग - आसावरी) अवधू सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेडा ॥अवधू०॥ तरुवर एक मूल बिन छाया, बिन फूले फल बागा । शाखा पत्र नहि कछु उनकु, अमृत गगने बागा ॥अवधू०॥१॥ श्रीमान् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि जो इस पद का अर्थ करेगा, उस अवधूत योगी को मेरा गुरु समझें । यहाँ आत्मा को वक्ष की उपमा दी गई है, किन्तु आत्मा अनादि काल से हैं, अत: वक्ष की भाँति आत्मा के जड़ नहीं है। आत्मा अरूपी है, इसलिये वृक्ष के समान उसकी छाया नहीं पड़ती। इसी प्रकार वृक्ष की भाँति उसके पत्ते, डालिये, फूल और फल भी नहीं है, किन्तु आत्मा रूपी वृक्ष के सिद्धशिला रूपी आकाश में अमृत रूपी मोक्ष फल लगता है, अर्थात् आत्मा संपूर्ण कर्मों का क्षय कर परमात्म पद को प्राप्त होती है । तरुवर एक पंखी दोउ बेठे, एक गुरु एक चेला। चेले ने जुग चुन चुन खाया, गुरु निरन्तर खेला ॥अवधू०॥२॥ ___ शरीर रूपी वृक्ष पर आत्मा और मन रूपी दो पक्षी बैठे हैं, आत्मा गुरु है और मन शिष्य । गुरु शिष्य को हित शिक्षा देकर वश में रखने का प्रयत्न करते हैं, किंतु चंचल स्वभाव वाला शिष्य इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हो जाता है और बाह्य पदाथ के अन्न कणों को चुन चुन कर खाता है, जबकि आत्मा रूपी गुरु तो सर्वदा अपने ज्ञानदर्शन-चारित्र रूपी गुणों में लीन रहता है। For Private And Personal Use Only

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