Book Title: Acharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth Author(s): Jinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan Publisher: Jinwani Jirnoddharak Sanstha FaltanPage 18
________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः। जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था . पच्चीस सालका अहवाल परम पूज्य चारित्रचक्रवर्ति श्री १०८ आचार्यवर्य शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था का पच्चीस साल का यह अहवाल समाज को प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता होती है। संस्था की मूल प्रेरक शक्ति प. पू. प्रातःस्मरणीय श्री १०८ आचार्य शांतिसागर महाराज ही थे । भारतीय जैन अजैन जनता प. पू. महाराजश्री क जीवन से भलीभांति परिचित है। भाद्रपद सुदी २ संवत् २०११ में उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् समाज को जो क्षति पहुंची उसकी पूर्ति असंभव है। वि. संवत् २०००-२००१ वीरनिर्वाण संवत् २४७०-७१ में संस्था की स्थापना हुई। यह पच्चीस बरस का काल दि. जैन समाज के इतिहास में महत्त्वपूर्ण तथा संस्मरणीय रहा। वर्तमान पंचम काल के चालू तीन चार शतकों में दि. जैन साधु की परंपरा खंडितप्राय थी। उसको आगमानुकूल पुनरुज्जीवित करने का श्रेय आचार्यश्री को है। साधु का जीवन यथार्थ में अंतर्मुख दृष्टिसंपन्न होता है। बाहर के कार्यों में उनका कुछ लगाव या आसक्ती नहीं होती। अप्राकरणिक रूप में जो शुभभावरूप क्रिया बन जाती है उससे ही समाज की सांस्कृतिक धारणा बनती है। समीचीन दिगम्बरत्व का पुनरुज्जीवन, निग्रंथ दिगम्बर मुनिविहार, भारतीय जैन समाज के अपने स्वतंत्र अस्तित्व तथा धार्मिक अधिकारों की रक्षा, श्रुतप्रकाशन, सनातन दिगम्बरत्व के ऊपर होनेवाले आक्रमण का प्रतिकार, कुप्रथाओं का निर्दालन आदि जो चिरस्थायी तथा ऐतिहासिक कार्य इस समय में हुए उसमें उनकी सहज प्रेरणा थी। ऐसे महात्मा के आशीर्वाद से जो सांस्कृतिक तथा धार्मिक कार्य उनके जीवन में हुआ तथा उनके पश्चात् उनकी पुण्यस्मृती में अभी भी बोरिवली आदि स्थानों पर जो धर्मकार्य हुए उनको समाज कभी भी भूल नहीं सकेगी । परमपावन सर्वतोभद्र जिनागम के रक्षणार्थ श्री १०८ आ. शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी जीर्णोद्धारक संस्था उनके ही प्रेरणा और आशीर्वाद से २००१ में स्थापित हुई । महाराज श्री के जीवनकाल में उनक आशीर्वाद से जो संस्थाएँ स्थापित हुई उनमें इस संस्था का अपना एक विशिष्ट स्थान है। अपने उद्देश्य की पूर्ति में संस्था ने काफी मात्रा में सफलता प्राप्त की है। वीरवाणी से साक्षात् संबंधित धवल, जयधवल, महाधवल सिद्धान्तग्रंथ ताडपत्रों में लिखितरूप में मुडबिद्री में विराजमान हैं, यह सबको विदित है। वहां श्री धवला की ताडपत्र की दो पूर्ण और एक अपूर्ण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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