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१० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
शिला आत्मा के अस्तित्व की दार्शनिक अवधारणा से लेकर कठोरतम मुनि - आचार तक का प्रतिपादन है ।
महावीर मानव स्वभाव तथा उसकी विभिन्न विकृतियों, (कमजोरियों) के सम्यक् परिज्ञाता थे । उन्होंने आचाराङ्ग में मानव चारित्र्य के उदात्तीकरण का उपदेश दिया । आचाराङ्ग में आचार नियमों का प्रतिपादन व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के उद्देश्य से ही हुआ है ।
आचाराङ्ग दो श्रुत स्कन्धों में विभक्त है । प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन और उनके चौवालीस उद्देशक हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार चूला सहित सोलह अध्ययन हैं ।
प्रथम-ध तस्कन्ध :
प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययनों को 'ब्रह्मचर्य' भी कहा जाता है । उपनिषदों में ब्रह्म शब्द आत्मा का पर्यायवाची है । उनमें आत्मचर्या अर्थात् आत्मरमण को ब्रह्मचर्य कहा गया है । बौद्धों ने मैत्री, प्रमोद, करुणा और मध्यस्थ इन चार भावनाओं को ब्रह्म-विहार कहा है । आचाराङ्ग में ब्रह्मचर्यं शब्द का प्रयोग संयम के अर्थ में हुआ है । 'समता' और 'अहिंसा' की साधना का नाम ही संयम है। गीता में समत्व ( समता ) को योग ३५ और ब्रह्म कहा गया है ।
संक्षेप में ब्रह्मचर्य, समता, अहिंसा और संयम की साधना के रूप में आत्मरमण की स्थिति है । आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में इन्हीं बातों का विवेचन होने से उसे ब्रह्मचर्य कहा गया । इस प्रकार साधना के मूल तत्त्व समता या सामायिक का विवेचन होने से उसे 'सामायिक' भी कहा गया है । इसके प्रत्येक अध्ययन ( अध्याय ) का वर्ण्य विषय निम्न प्रकार है
प्रथम अध्ययन ( शस्त्र - परिज्ञा ) :
प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्र - परिज्ञा है । 'शस्त्र-परिज्ञा' दो शब्दों के मेल से बना है-शस्त्र + परिज्ञा । ' शस्त्र' का अर्थ है - हिंसा के उपकरण या साधन और परिज्ञा' का अर्थ है - प्रज्ञा, ज्ञान या विवेक । 'परिज्ञा' शब्द परि उपसर्ग 'ज्ञ' धातु से निष्पन्न है । 'ज्ञ' का अर्थ 'जानना' है और 'परि' उपसर्ग का अर्थ है पूरी तरह से ।
इस प्रकार 'परिज्ञा' शब्द का अर्थ हुआ सम्पूर्ण रूप से जानना । आचाराङ्ग को टीका में शस्त्र दो प्रकार के कहे गये हैं- द्रव्यशस्त्र और
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