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पडिक्कमणं णामं चंउत्थं अज्झयणं
प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन
तृतीय वंदना अध्ययन के बाद प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो रागद्वेष से रहित समभावों से गुरुदेवों की स्तुति करने वाले हैं वे ही गुरुदेव की साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं। जो गुरुदेव को वंदन ही नहीं करेगा, वह किस प्रकार गुरुदेव के प्रति बहुमान रखेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना करेगा? जो पाप मन से, वचन से और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से कराये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, इन सब पापों की निवृत्ति के लिए कृंत पापों की आलोचना करना, निंदा करना प्रतिक्रमण है । प्रतिक्रमण करने से, आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आती है।
प्रतिक्रमण का अर्थ
प्रतिक्रमण में ‘प्रति' उपसर्ग है इसका अर्थ विपरीत अथवा प्रतिकूल होता है । क्रमधातु से 'क्रमण' बना है जिसका अर्थ हैं गमन करना। भावार्थ यह है कि शुभ योगों से अशुभयोगों में गये हुए आत्मा का पुनः शुभ योगों में आना 'प्रतिक्रमण' कहलाता है।
प्रति उपसर्ग का 'विपरीत' अर्थ करके निम्न व्याख्या की जाती है - 'प्रमाद के कारण स्वस्थान से पर स्थान में (स्वभाव से विभाव में) गयी हुई आत्मा का पुनः स्वस्थान में (स्वभाव में) आना प्रतिक्रमण कहलाता है।' जो आत्मा अपने ज्ञान दर्शनादि रूप स्थान से, प्रमाद के कारण मिथ्यात्व आदि दूसरे स्थानों में चली गयी है उसका मुड़ कर फिर अपने स्थानं में आना प्रतिक्रमण है ।
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प्रति उपसर्ग का दूसरा अर्थ - प्रतिकूल होता है उसके अनुसार क्षायोपशमिक भाव से . औदयिक भाव के वश में बनी हुई आत्मा को पुनः औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आना, प्रतिकूल गमन के कारण यह प्रतिक्रमण कहलाता है । राग द्वेषादि औदयिक भाव संसार का मार्ग है और समता, क्षमा, दया, नम्रता आदि क्षायोपशमिक भाव मोक्षमार्ग है । '
प्रतिक्रमण की जो परिभाषाएं प्रचलित हैं, वे इस प्रकार है -
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