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६. निष्प्रतिकर्म - शरीर की शोभा नहीं करना ।
७. अज्ञात तप यश और सत्कार की इच्छा नहीं रख कर इस प्रकार तप करना कि जो बाहर किसी को मालूम नहीं हो सके।
८. निर्लोभ - वस्त्र, पात्र अथवा स्वादिष्ट आहार आदि किसी भी वस्तु का लोभ नहीं
सहन करना ।
करना ।
९. तितिक्षा - संयम साधना करते हुए जो परीषह और उपसर्ग आवे, उन्हें शांतिपूर्वक
आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
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१०. आर्जव - हृदय में ऋजुता - सरलता धारण करना ।
११. शुचि - सत्य और शुद्धाचार से पवित्र रहना ।
१२. सम्यग्दृष्टि - दृष्टि की विशेष शुद्धता, सम्यक्त्व की शुद्धि ।
१३. समाधि - समाधिवन्त समाधिवन्त शांत और प्रसन्न रहना ।
१४. आचार - चारित्रवान् होना, निष्कपट हो कर चारित्र का पालन करना ।
१५. विनयोपगत - मान को त्याग कर विनयशील बनना ।
१६. धैर्यवान् - अधीरता और चंचलता छोड़ कर धीरज धारण करना ।
१७. संवेग संसार से अरुचि और मोक्ष के प्रति अनुराग होना-मुक्ति की अभिलाषा होना ।
१८. प्रणिधि - माया का त्याग करके निःशल्य होना, भावों को उज्ज्वल रखना ।
१९. सुविहित उत्तम आचार का सतत पालन करते हीं रहना ।
२०. संवर - आस्रव के मार्गों को बन्द करके संवरवंत होना ।
२१. दोष निरोध- अपने दोषों को हटा कर उनके मार्ग ही बन्द कर देना, जिससे पुनः दोष प्रवेश नहीं हो ।
२२. सर्व काम विरक्तता - पाँचों इन्द्रियों के अनुकूल विषयों से सदा विरक्त ही रहना । मूल गुण विषयक - हिंसादि त्याग के प्रत्याख्यान करना
उत्तर गुण विषेयक-तप आदि के प्रत्याख्यान करके शुद्धता
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२३. मूल गुण प्रत्याख्यान और उसमें दृढ़ रहना ।
२४. उत्तरगुण प्रत्याख्यान पूर्वक पालन करना ।
२५. व्युत्सर्ग - शरीरादि द्रव्य और कषायादि भाव व्युत्सर्ग करना । २६. अप्रमाद - प्रमाद को छोड़ कर अप्रमत्त रहना ।
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