Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 303
________________ २८२ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट तृतीय साधु और श्रावक दोनों के लिये हैं। तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत देश उत्तरगुण प्रत्याख्यान है जो श्रावकों के लिये होते हैं। (भगवती सूत्र श० ७ उ० २) प्रत्याख्यान की विशुद्धि - प्रत्याख्यान को पूर्ण विशुद्ध रूप से पालन करने में ही साधक की महत्ता है। छह प्रकार की विशुद्धियों से युक्त पाला हुआ प्रत्याख्यान ही शुद्ध और दोष रहित होता है। (१) श्रद्धान विशुद्धि - शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पांच महाव्रत तथा बारह व्रत आदि प्रत्याख्यान का विशुद्ध श्रद्धान करना। (२) ज्ञान विशुद्धि.- जिनकल्प, स्थविरकल्प, मूलगुण, उत्तरगुण तथा प्रात:काल आदि के रूप में जिस समय जिसके लिये जिस प्रत्याख्यान का जैसा स्वरूप होता है, उसको ठीक वैसा ही जानना, ज्ञान विशुद्धि है। (३) विनय विशुद्धि - विनय पूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करना। प्रत्याख्यान के समय जितनी वन्दनाओं का विधान है, तदनुसार वन्दन करना। (४) अनुभाषणा शुद्धि - प्रत्याख्यान करते समय गुरु के सम्मुख हाथ जोड़ कर उपस्थित होना, गुरु के कहे अनुसार पाठों को ठीक-ठीक बोलना, तथा गुरु के 'वोसिरह' कहने पर वोसिरामि' आदि यथा समय कहना, अनुभाषणा शुद्धि है। (५) अनुपालना शुद्धि - भयंकर वन, दुर्भिक्ष, बीमारी आदि में भी व्रत को दृढ़ता के साथ ठीक-ठीक पालन करना, अनुपालना शुद्धि है। (६) भाव विशुद्धि - रागद्वेष तथा परिणाम रूप दोषों से रहित, पवित्र भावना से प्रत्याख्यान करना तथा पालना, भाव विशुद्धि है।। प्रत्याख्यान से अमुक व्यक्ति की पूजा हो रही है अतः मैं भी प्रत्याख्यान करूं, यह मैं ऐसा प्रत्याख्यान करूं जिससे सब लोग मेरे प्रति ही अनुरक्त हो जाय, फलतः अमुक साधु का फिर आदर ही न होने पाए यह द्वेष है। ___रागद्वेष युक्त तथा ऐहिक तथा पारलौकिक कीर्ति यश-वैभव आदि किसी भी फल की इच्छा से प्रत्याख्यान करना परिणाम दोष है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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