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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम .000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
ऐसे स्थान में नहीं रहना चाहिए, जो आधाकर्म बहुल (साधु के लिए आरंभ करके बनाया) हो, साधु के रहने के लिये जल छिटक कर धूल दबाई हो, झाडू लगा कर साफ किया हो, विशेष रूप से जल छिडका हो, सुशोभित किया हो, ऊपर छाया हो, चूना आदि पोता हो, लीपा हो, विशेष रूप से लीपा हो, शीत निवारण के लिए अग्निं जलाई हो या दीपक जलाया हो, बर्तन आदि हटाकर अन्यत्र रखे हो जहाँ भीतर या बाहर रहने से असंयम की वृद्धि होती हो, ऐसे स्थान साधु के लिए वर्जित हैं। ऐसे उपाश्रय सूत्र (आगम) से प्रतिकूल होने से साधु साध्वियों को नहीं उतरना चाहिए। ___ इस प्रकार विविक्त-वसति रूप समिति का पालन करने से अन्तरात्मा ‘भावित होती है
और दुर्गति के कारण ऐसे पाप कर्म करने, कराने से निवृत्ति होती है तथा दत्तानुज्ञात (मकान . मालिक ने आज्ञा दी है) स्थान की रुचि होती है।
२. निर्दोष संस्तारक - आराम, उद्यान, कानन और वन प्रदेश में सूखा घास कठिनक (तृण विशेष), जलाशयोत्पन्न तृण, परा (तृणविशेष) मेर (मूंज), कूर्च, कुश, डाभ, पलाल, मूयक, वल्कल, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और कंकरादि बिछाने या अन्य कार्य के लिये ग्रहण करना हो और वह वस्तु उपाश्रय के भीतर भी हो, तो भी आज्ञा प्राप्त किये बिना ग्रहण करना साधु के लिए कल्पनीय नहीं है। जिस स्थान में मुनि ठहरा है उसमें रहे तृण आदि के ग्रहण करने की भी प्रतिदिन आज्ञा लेनी चाहिए। इस प्रकार 'अवग्रह समिति' का सदैव पालन करने से अन्तरात्मा पवित्र होती है और दुर्गतिदायक पापकर्मों के करने कराने से निवृत्ति होती है तथा दत्तानुज्ञात वस्तु को ग्रहण करने की रुचि होती है। __३. शय्या परिकम वजन - साधु, पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक के लिए वृक्षों का छेदन नहीं करे और वृक्षों का छेदन-भेदन करा कर शय्या नहीं बनवावे, किन्तु जिस गृहस्थ के उपाश्रय में साधु ठहरे वहीं शय्या की गवेषणा करे। यदि वहाँ परठने की भूमि विषम (उबड़ खाबड़) हो तो उसे सम (बराबर) नहीं करे। यदि वायु का संचार न हो या अधिक हो, तो उत्सुकता (रुचि) नहीं रख कर समभाव पूर्वक रहे। यदि डांस मच्छरों का परीषह उत्पन्न हो जाय, तो क्षुभित नहीं होकर शान्त रहे। उन डांस मच्छरों का निवारण करने । के लिए न तो अग्नि प्रज्वलित करे और न धुंआ ही करे। इस प्रकार निर्दोष चर्या से उस साधु के जीवन में अत्यधिक संयम, विस्तृत संवर, कषायों और इन्द्रियों पर विशेष विजय, चित्त में प्रसन्नता एवं शांति की बहुलता होती है। वीतराग भाव की वृद्धि करने वाला धीर-वीर श्रमण,
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