Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 289
________________ आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट तृतीय ४. पडिक्कमणं भंते! जीवे किं जणयइ ? अर्थ - हे भगवन्! प्रतिक्रमण करने से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ? पडिक्कमणेणं वयं छिद्दाई पिहेड़, पिहिय वयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अट्ठसु पवयणं मायासु उवउत्ते अपुहुत्ते सुप्पणिहिए विहरई । अर्थ - प्रतिक्रमण करने से अहिंसा आदि व्रतों के दोष रूप छिद्रों का निरोध होता है और छिद्रों का निरोध होने से जीव आस्रव का निरोध करता है तथा (शबलादि दोषों से रहित) शुद्ध चारित्र का पालन करता है और इस प्रकार आठ प्रवचन माता में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक एवं अपनी इन्द्रियों को असन्मार्ग से हटा कर संयम मार्ग में विचरण करता है। २६८ ५. काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? अर्थ - हे भगवन्! कायोत्सर्ग करने से आत्मा को क्या लाभ होता है ? काउस्सग्गेणं तीय- पडुपन्न पायच्छित्तं विसोहेड़, विसुद्ध पायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरिय भरुव्व भारवहे पसत्य झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरड़ । अर्थ - कायोत्सर्ग करने से अतीतकाल एवं आसन्न भूत (वर्तमान) काल के प्रायश्चित्त विशोध्य अतिचारों की शुद्धि होती है और इस प्रकार विशुद्धि प्राप्त आत्मा प्रशस्त (धर्म) ध्यान में रमण करता हुआ उसी प्रकार सुखपूर्वक विचरण करता है जिस प्रकार सिर का बोझ उतर जाने से मजदूर सुख का अनुभव करता है । ६. पच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? अर्थ - हे भगवन् ! प्रत्याख्यान करने से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ? पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुभइ, पच्चक्खाणेणं इच्छानिरोह जणयइ, इच्छानिरोहं गए य णं जीवै सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीईभूए विहर। अर्थ - प्रत्याख्यान करने से हिंसा आदि आस्रवद्वार बंद हो जाते हैं एवं इच्छा का निरोध हो जाता है, इच्छा का निरोध होन से समस्त विषयों के प्रति वितृष्ण रहता हुआ साधक शान्तचित्त होकर विचरण करता है । ५. आवश्यक के भेद आवश्यक के दो भेद हैं- द्रव्यावश्यक और भावावश्यक । Jain Education International ******************* For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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