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भाव समायिक के प्रकार और परिभाषा २७५
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आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा
उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होइ ॥ ( आवश्यक निर्युक्ति)
अर्थात् - जब साधक सावद्य योग से विरत होता है, छह काय जीवों के प्रति संयत होता है, मन, वचन और काया को एकाग्र करता है, स्व स्वरूप में उपयुक्त होता है, यतना से विचरण करता है, तब वह स्वयं ही सामायिक है ।
(3) पर द्रव्यों से निवृत्त होकर साधक की ज्ञान चेतना जब आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती है, तभी भाव सामायिक होती है । अथवा राग-द्वेष से रहित माध्यस्थभावापन्न आत्मा सम कहलाता है। उस सम में गमन करना ही भाव सामायिक है।
(४) भाव सामायिकं सर्वजीवेषु मैत्रीभावोऽशुभपरिणामवर्जनं वा ।
अर्थात् संसार के सभी जीवों पर मैत्री भाव रखना, अशुभ परिणति का त्याग कर शुभ एवं शुद्ध परिणति में रमण करना, भाव सामायिक है । (अनगार धर्मामृत टीका ८-१० )
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(५) सामाइयं च तिविहं, सम्मत्त सुयं तहा चरितं च ।
दुविहं चेव चरितं, अगारमणगारियं चैव ॥ ( आवश्यक निर्युक्ति ७९६) अर्थात् - सम्यक्त्व सामायिक से विश्वास की शुद्धि, श्रुत सामायिक से विचारों की शुद्धि, चारित्र सामायिक से आचार की शुद्धि होती है। तीनों मिलकर ही आत्मा को विशुद्ध . बनाते हैं । चारित्र के दो भेद अगार (गृहस्थ-श्रावक) चारित्र, अनगार (साधु) चारित्र । (६) सामाइयं संखेवो चोद्दस पुव्वत्थ पिंडोति । (विशेषावश्यक भाष्य २७९६ ) अर्थात् - सामायिक चौदह पूर्वों का अर्थ-पिंड है।
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(७) सामाइये नाम सावज्जजोगं परिवज्जणं, निरवज्जजोग पडिसेवणं च । सावद्य योगों का त्याग करना और निरवद्य योगों में प्रवृद्धि करना ही सामायिक है। २. चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक सावद्य योगों से विरति का उपदेश तीर्थंकर प्रभु ने दिया है। अतः उनकी स्तुति की जाती है । भगवत्स्तुति का अर्थ है उच्च नियमों, सद्गुणों एवं उच्च आदर्शों का स्मरण करना । तीर्थंकरों की भक्ति के द्वारा साधक अपने औद्धत्य तथा अहंकार का नाश करता है, सद्गुणों के प्रति अनुराग की वृद्धि होती है फलस्वरूप प्रशस्त भावों से संचित कर्मों को नष्ट करता है ।
तीर्थंकर प्रभु हमारे आराध्य हैं। पहले उन्होंने स्वयं ही अपने आपको पापों से विरत कर पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति की है, बाद में हमारे ऊपर अनन्त अनुकम्पा कर जिनवाणी की वर्षा की है अतः उनके नामों के स्मरण से दर्शन की विशुद्धि होती है ।
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