Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 294
________________ आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा - आवश्यक की विस्तृत विवेचन २७३ . ..... ...... ..... ...... .. ...... .. .... . .. . .... . .. लगाने वाले, उसी आवश्यक के विषय में अव्यवच्छिन्न उपयोग सहित अनुष्ठान से उत्कृष्ट भाव द्वारा परिणत ऐसे आवश्यक के परिणाम रखने वाले, उसी आवश्यक के सिवाय अन्यत्र किसी स्थान पर मन, वचन, काया के योगों को न करते हुए चित्त को एकाग्र रखने वाले, दोनों समय उपयोग सहित आवश्यक करे उसको लोकोत्तर नोआगम से भावावश्यक कहते हैं। इति लोकोत्तर नो आगम से भावावश्यक। ॥ इति भावावश्यक सम्पूर्ण ६. आवश्यक की महत्ता । जइ दोसो तं छिदइ, असंतदोसम्मि णिज्जरं कुणइ। कुसल तिगिच्छरसायण, मुवणीयमिंद पडिक्कमणं॥ अर्थ - उभयकाल आवश्यक (भाव सहित) करना कुशल चिकित्सक के उस रसायन के समान है, जो रोग होने पर उसका उपशमन कर देता है और नहीं होने पर शरीर में बल वृद्धि (तेज कान्ति) कर देता है। इसी प्रकार आवश्यक करने से अगर व्रतों में अतिचार-दोष लगे हों तो उसकी शुद्धि हो जाती है और नहीं लगे हों तो स्वाध्याय रूप होने से कर्मों की निर्जरा होती है और बराबर स्मृति बने रहने से भविष्य में अतिचार न लगे, इसकी सजगता बनी रहती हैं। अतः आवश्यक करना हर दृष्टि से उपयोगी है। . .. ७. आवश्यक का विस्तृत विवेचन . आवश्यक के छह भेद हैं - १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान। ___१. सामायिक आवश्यक - (अ) सम् एकीभावे वर्तते। एकत्वेन अयनं गमनं समयः। समय एव सामायिकम्। समयः प्रयोजनमस्येति सामायिकम्। 'सम' उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक 'इण' धातु से समय शब्द बनता है। सम् का अर्थ एकीभाव है और अय का अर्थ गमन है अर्थात् जो एकीभाव रूप से बाह्य परिणति से वापस मुड़ कर आत्मा की और गमन किया जाता है उसे समय कहते हैं। समय का भाव सामायिक होता है। (आ) सम + आय = अर्थात् समभाव का आना सामायिक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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