Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 292
________________ आवश्यक सम्बन्धी विशेष विचारणा - आवश्यक के पर्यायवाची शब्द २७१ मुगदरस वा अजाए वा दुग्गाए वा कोट्ट किरियाए वा उवलेवण संमज्जण आवरिसण धुव पुप्फ गंधमल्लाइयाई दव्वावस्सयाई करेंति से तं कुप्पावणियं दव्वावस्सयं।" (अनुयोगद्वार २०) - १. खाते हुए फिरने वाले २. रास्ते में पड़े हुए चीथड़ों को पहनने वाले ३. चर्म को पहनने वाले ४. भिक्षा मांगकर खाने वाले ५. त्वचा पर भस्म लगाने वाले ६. बैल को रमाकर आजीविका करने वाले ७. गाय की वृत्ति से चलने वाले ८. गृहस्थ धर्म को ही कल्याणकारी मानने वाले ९. यज्ञादि धर्म की चिन्ता वाले १०. विनयवादी ११. नास्तिकवादी १२. तापस १३. ब्राह्मण प्रमुख १४. पाखंड मार्ग में चलने वालों का प्रभात पहले यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय के समय इन्द्र के स्थान पर, स्कन्द (कार्तिकेय) के स्थान पर, महादेव के स्थान पर, व्यन्तर विशेष के स्थान पर, वैश्रमण के स्थान पर, सामान्य देव के स्थान पर, नागदेव के स्थान पर, यक्ष और भूत (व्यन्तर विशेष) के स्थान पर, बलदेव के स्थान पर, आर्या प्रशान्त रूप देवी के स्थान पर, महिषारूढ देवी के स्थान पर गोबरादि से लीपना, संमार्जन करना, सुगंधित जल छिड़कना, धूप देना, पुष्प चढ़ाना, गंध देना, सुगंध माल्य पहिनाना इत्यादि द्रव्यावश्यक करते हैं। यह कुप्रावचनिक ज्ञ भव्य शरीर व्यतिरिक्त नो आगमतो द्रव्यावश्यक hoto ३. लोकोत्तर ज्ञ शरीर - ''जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छक्काय निरणुकंपा, हया इव उद्दामा, गया इव निरंकुसा, घट्ठा, मट्ठा, तुप्पोट्ठा, पंडुरपडपाउरणा, जिणाणमणाणाए, सच्छंद विहरिऊणं उभओकालं आवस्सयस्स उवट्ठवंति से तं लोगुत्तरि दव्वावस्सयं।' जो ये साधु के २७ गुणों तथा शुभ योगों से रहित हैं, षट्काय की अनुकंपा से रहित हैं, बिना लगाम के घोड़े की तरह उतावले चलने वाले हैं, अंकुश रहित हस्तिवत् मदोन्मत्त हैं, फेनादि किसी द्रव्य से सुहाली करने के लिये जंघाओं को घिसने वाले हैं, तेल जल आदि से शरीर के केशों को संवारने वाले हैं, होठों के मालिश करने वाले अथवा शीत रक्षादि के लिये मदन (मेण) से होठों को वेष्टित रखने वाले हैं, धोये हुए सफेद वस्त्रों को पहिनने वाले हैं, तीर्थंकरों की आज्ञा से बाहिर हैं, स्वच्छन्द मति से विचरते हुए जो दोनों वक्त आवश्यक करते हैं, उसे लोकोत्तर ज्ञ शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त नो आगम से द्रव्यावश्यक कहते हैं। ॥ इति द्रव्यावश्यक सम्पूर्ण॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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