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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम
६. मिथ्यात्व ७. अज्ञान ८. अविरति ९. काम १०. हास्य ११. रति १२. अरति १३. भय १४. शोक १५. जुगुप्सा १६. राग १७. द्वेष १८. निद्रा। अर्हन्त भगवान् इन १८ दोषों से रहित होते हैं।
चौतीस अतिशय - तीर्थंकरों के अतिशय (अतिशेष) चौतीस हैं, वे इस प्रकार हैं -
१. उनके शरीर के केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम और नख अवस्थित रहते हैं न बढ़ते हैं न घटते हैं।
२. उनका शरीर रोग रहित और निरुपलेप (रज और स्वेद रहित) होता है। ३. उनका मांस और शोणित दूध की तरह पाण्डुर (सफेद) होता है।. .. ४. उनके उच्छ्वास निःश्वास कमल और नीलोत्पल की तरह सुगंधित होते हैं।
५. उनका आहार और निहार दोनों प्रच्छन्न होते हैं, मांस चक्षु द्वारा दृश्य नहीं होते। छद्मस्थों के दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।
६. उनके आगे-आगे आकाश में धर्म चक्र चलता है। ७. उनके ऊपर आकाशगत छत्र होता है। ८. उनके प्रकाशमय श्वेतवर चामर ढुलते हैं। ९. उनके आकाश जैसा स्वच्छ स्फटिकमय पादपीठ सहित सिंहासन होता है। १०. उनके आगे-आगे आकाश में हजारों लघुपताकाओं से शोभित इन्द्रध्वज चलता है।
११. जहाँ जहाँ अर्हन्त भगवन्त ठहरते हैं, बैठते हैं वहाँ वहाँ तत्क्षण पत्रों से भरा हुआ और पल्लव से युक्त छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका सहित अशोक वृक्ष प्रगट हो जाता है।
१२. मस्तक के कुछ पीछे तेजमंडल (भामण्डल) होता है। वह अंधकार में भी दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है।
१३. उनके विचरने का भूमिभाग सम और रमणीय हो जाता है। १४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। १५. ऋतुएं अनुकूल और सुखदायी हो जाती हैं।
१६. शीतल, सुखद और सुगंधित वायु योजन प्रमाण भूमि का चारों ओर से प्रमार्जन करती है।
१७. छोटी कुंआर वाली वर्षा द्वारा रज (आकाशवर्ती) और रेणु (भूवर्ती) का शमन हो जाता है।
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