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श्रमण आवश्यक सूत्र - पाँच पदों की वंदना
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१८. जल में और स्थल में उत्पन्न हुए हों ऐसे पाँच वर्ण के अचित्त फूलों की घुटने प्रमाण वर्षा होती है। फूलों के डंठल सदा नीचे की ओर रहते हैं।
१९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप और गन्ध का अपकर्ष (अभाव) होता है। २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का प्रादुर्भाव होता है। २१. प्रवचन काल में उनका स्वर हृदयस्पर्शी और योजनगामी होता है। २२. भगवान् अर्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते हैं।
२३. उनके मुख से निकली हुई अर्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग (वन्यपशु) पशु (ग्राम्य पशु) पक्षी, सरीसर्प आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है। .. २४. पूर्वबद्ध वैर वाले देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गन्धर्व और महोरग अर्हत के पास प्रशान्त चित्त और प्रशान्त मन वाले होकर धर्म सुनते हैं।
२५. अन्यतीर्थिक प्रावचनिक भी पास में आने पर भगवान् को वंदन करते हैं। २६. तीर्थंकर देव के सम्मुख अन्यतीर्थिक प्रावचनिक निरुत्तर हो जाते हैं।
२७. तीर्थंकर भगवान् जहाँ-जहाँ विहार करते हैं वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन में ईति (धान्य आदि का उपद्रव हेतु) नहीं होती।
२८. मारी (हैजा, प्लेंग) नहीं होती। २९. स्वचक्र (अपनी सेना का उपद्रव) नहीं होता। ३०. परचक्र. (दूसरे राज्य की सेना से होने वाला उपद्रव) नहीं होता। ३१. अतिवृष्टि नहीं होती। ३२. अनावृष्टि (वर्षा का अभाव) नहीं होती। ३३. दुर्भिक्ष (दुष्काल) नहीं होता।
३४. पूर्व उत्पन्न उत्पात और व्याधियाँ शीघ्र ही उपशान्त हो जाती है। (समवायाङ्ग सूत्र ३४ वाँ समवाय) ... टीका में लिखा है कि २,३,४,५ ये चार अतिशय जन्मजात होते हैं। इक्कीसवें अतिशय से चौंतीसवें अतिशय तक का तथा बारहवाँ (भामंडल) ये पन्द्रह अतिशय घातीकर्मों के क्षय से उत्पन्न होते हैं। शेष अतिशय (पहला और ६ से ११ तथा १३ से २०)देवकृत होते हैं।
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