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आवश्यक सूत्र - परिशिष्ट प्रथम
९९. अकारण आहार करने के छह कारणों के सिवाय बाल वृद्धि आदि के लिए भोजन करना अकारण है ।
ये पाँच दोष साधु मण्डली में बैठकर भोजन करते हुए लगते हैं, अतः मण्डल या ग्रासैषणा या परिभोगैषणा के दोष कहलाते हैं।
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आदान-भाण्ड मात्र (अर्थात् पात्र शेष सबंका ग्रहण भण्ड शब्द से ) निक्षेपणा समिति के दो अतिचार
१००. बिना देखे उपकरण आदि लेना 'आदान' है। ये दो अतिचार चौथी समिति
के हैं।
१०१. बिना देखे उपकरण आदि रखना 'निक्षेप' है ।
उच्चार पासवण खेल जल्ल सिंघाण परिद्वावणिया समिति के दस अतिचार १०२. अणावायमसंलोय (अनापात असंलोक) जहाँ लोगों का आना-जाना न होता हो तथा लोगों की दृष्टि न पड़ती हो, वहाँ परिस्थापन करना अनापात असंलोक (आपात - आना-जाना, संलोक - दृष्टि पड़ना ।)
१०३. परस्सणुवघाइय ( परानुपघातिक ) - जहाँ -रिस्थापन करने से संयम का उपघात (छह काय की विराधना) आत्मा का उपघात ( शरीर की विराधना ) तथा प्रवचन उपघात (शासन की निंदा) न हो, वैसी भूमि में परिस्थापन करना 'परानुपघातिक' है।
१०४. सम् (सम) - जहाँ ऊंची-नीची विषय भूमि न हो वहाँ परिस्थापन करना सम है । १०५. अज्झसिर (अशुषिर ) - जहाँ कीट जन्य पनी भूमि न हो तथा घास पत्ते आदि से ढकी भूमि न हो, वहाँ परिस्थापन करना 'अशुषिर' है।
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१०६. अचिरकालकयंमि (अचिरकालक्रत) जिन भूमि को अचित्त हुए इतना अधिक समय न हुआ हो कि पुनः सचित्त बन जाय ऐसी भूमि हो वहाँ परिस्थापन करना 'अचिरकालक्रत' है।
१०७. विच्छिण (विस्तीर्ण) लम्बी चौड़ी हो वहाँ परिस्थापन करना 'विस्तीर्ण' है।
जो परिस्थापन योग्य भूमि कम से कम एक हाथ
१०८. दूर मोगा (दूरावगाढ) - जो भूमि कम से कम चार अंगुल नीचे तक अचित्त
हो वहाँ परिस्थापन करना 'दूरावगाढ' है।
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