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प्रतिक्रमण - क्षमापना सूत्र (आयरिय उवज्झाए का पाठ)
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भावार्थ - आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण पर मैंने जो कुछ भी कषाय भाव किये हों, उन सब की मैं मन, वचन और काया से क्षमा चाहता हूँ॥१॥
अंजलिबद्ध दोनों हाथ जोड़ कर समस्त श्रमण संघ से मैं अपने सब अपराधों की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उनके प्रति क्षमा भाव करता हूँ॥२॥
धर्म में अपने चित्त को स्थिर कर के समस्त जीवराशि से मैं भावपूर्वक अपने अपराधों की क्षमायाचना करता हूँ और मैं भी उनके प्रति क्षमा भाव करता हूँ॥३॥
खाममि सव्व जीवे, सव्वे जीवा खमंत मे । मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं मझं ण केणइ ॥१॥ एवमहं आलोइय, निंदिय-गरहिय-दुगुंछियं सम्मं । तिविहेण पडिक्कंतो, वंदामि जिणे-चउव्वीसं ॥ २ ॥
कठिन शब्दार्थ - खमंतु - क्षमा करें, सव्वभूएसु - सब जीवों पर, मे - मेरी, मित्ती - मित्रता है, केणइ - किसी के साथ, मझं - मेरा, वेरं - वैरभाव, एवमहं - इस प्रकार मैं, आलोइय - आलोचना करके, निंदिय - निन्दा करके, गरहिय - गर्दा करके, दुगुंछियं - जुगुप्सा करके, तिविहेण - तीन प्रकार से, पडिक्कंतो - पाप कर्म से निवृत्त होकर, चउव्वीसं - चौबीस।
- भावार्थ - मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ वे सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मैत्री-मित्रता है किसी के साथ भी मेरा वैर-विरोध नहीं है।
इस प्रकार मैं सम्यक् आलोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा करके तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काया से प्रतिक्रमण कर पापों से निवृत्त हो कर चौबीस तीर्थंकर देवों को वंदन करता हूँ।
विवेचन २ क्षमा, मनुष्य की सबसे बड़ी शक्ति है। मनुष्य की मनुष्यता के पूर्ण दर्शन भगवती क्षमा में ही होते हैं। क्षमा के बिना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। उग्र से उग्र क्रियाकाण्ड, दीर्घ से दीर्घ तपश्चरण क्षमा के अभाव में केवल देह दण्ड ही होता है, उससे आत्मकल्याण तनिक भी नहीं हो सकता।
क्षमा का अर्थ है - सहनशीलता रखना। किसी के किए अपराध को अर्न्तहृदय से भी भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर कुछ भी लक्ष्य न देना, प्रत्युत अपराधी पर
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