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प्रतिक्रमण - शय्या सूत्र (निद्रा दोष निवृत्ति का पाठ)
अथवा पसारे हों, यूका - जू आदि जीवों को कठोर स्पर्श के द्वारा पीड़ा पहुँचाई हो, बिना यतना के अथवा जोर से खांसी की हो अथवा शब्द किया हो, 'यह शय्या बड़ी विषम तथा कठोर है' - इत्यादि शय्या के दोष कहे हों, बिना यतना किए छींक व जंभाई ली हो, बिना प्रमार्जन किये शरीर को खुजलाया हो अथवा अन्य किसी वस्तु को छुआ हो, सचित्त रज वाली वस्तु का स्पर्श किया हो, स्वप्न में विवाह युद्धादि के अवलोकन से आकुल व्याकुलता रही हो- स्वप्न में मन भ्रांत हुआ हो, स्वप्न में स्त्री-संग किया हो, स्वप्न में स्त्री को अनुरागभरी दृष्टि से देखा हो, स्वप्न में मन में विकार आया हो, स्वप्न दशा में रात्रि भोजनपान की इच्छा की हो या भोजन-पान किया हो अर्थात् मैने दिन में जो भी शयन संबन्धी अतिचार किया हो, वह सब पाप मेरा मिथ्या-निष्फल हो ।
. विवेचन - प्रस्तुत पाठ शयन संबंधी अतिचारों का प्रतिक्रमण करने के लिए है। सोते समय जो भी शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक भूल हुई हो, संयम की सीमा से बाहर अतिक्रमण हुआ हो, किसी भी तरह का विपर्यास (संयम विरुद्ध वृत्ति या प्रवृत्ति) हुआ हो उन सब के लिये पश्चात्ताप करने का, मिच्छामि दुक्कडं देने का विधान इस पाठ में किया गश है अतः इसे 'निद्रा दोष निवृत्ति का पाठ' कहा जाता है। - सायंकाल, प्रातःकाल प्रतिक्रमण में बोलने के अलावा जब भी साधक सो कर उठे, उसे निद्रा दोष निवृत्ति का यह पाठ अवश्य बोलना चाहिये।
पाठ में आये कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ इस प्रकार है :
पगामसिमाए - प्रकामशय्या - मर्यादा से अधिक सोना अथवा मर्यादा से अधिक लम्बी, चौड़ी, जाड़ी (गद्देदार) शय्या (बिछौना)।
निगामसिझाए - निकामशय्या - बार बार मर्यादा से अधिक सोना अथवा प्रतिदिन बढिया गद्देदार शय्या करना। __ उव्वट्टणाए परियणाए (उद्ववर्तनया परिवर्तनया) - अविधि से करवट बदलना उर्तन है और अयतना से बार बार करवट बदलना या एक करवट से दूसरी करवट बदलना पा वर्तना है। उद्वर्तन और परिवर्तना का अर्थ पुनः वही पहले वाली करवट ले लेना।
कूइए - कूजित - अविधि से खांसते हुए अथवा कुचेष्टा करने से अर्थात् स्त्री आदि के भोग की इच्छा से, मनमाना बोलने से, फूंके मारने से अर्थात् निद्रा प्रलाप से।
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