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२. 'मंगति दूर दुष्टमनेन अस्माद् वा इति मंगलम्' अर्थात् जिसके द्वारा दुर्देव - दुर्भाग्य आदि सब संकट दूर हो जाते हैं, वह मंगल है।
३. अभिधान राजेन्द्र कोष में मंगल शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है - 'मंङ्ग हितं भाति ददाति इति मंगल' अथवा 'मां गालयति भवात् अपनयति इति मंगलम्' अर्थात् जो सब प्राणियों का हित करे अथवा जीव को संसार समुद्र से पार कर दे, उसे मंगल कहते हैं।
आवश्यक सूत्र
देवयं दैवत का अर्थ देवता है । अर्थात् 'दीवयन्ते स्वरूपे इति देवा' जो अपने स्वरूप में चमकते हैं अर्थात् अपने स्वरूप में रमण करते हैं, वे देव हैं।
चेइयं - चैत्य शब्द अनेकार्थक है अतः प्रसंगानुसार अर्थ किया जाता 1 १. 'चिती संज्ञाने' धातु से चैत्य शब्द बनता है। जिसका अर्थ ज्ञान है ।
२. 'चित्ता ह्लादकत्वाद् वा चैत्या' (ठाणांग वृत्ति ४/२) जिसके देखने से चित्त में आह्लाद उत्पन्न हो वह चैत्य होता है । यह अर्थ भी प्रसंगानुकूल है। गुरुदेव के दर्शन से सभी के हृदय में आह्लाद उत्पन्न होता है ।
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३. रायप्रश्नीय सूत्र की मलयगिरिकृत टीका में 'चैत्य' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया 'चैत्यं सुप्रशस्त मनोहेतुत्वाद' मन को सुप्रशस्त सुंदर शांत एवं पवित्र बनाने वाले वास्तव में गुरुदेव ही जगत् के सब जीवों के कषाय कलुषित अप्रशस्त मन को प्रशस्त सुंदर स्वच्छ निर्मल बनाने वाले होते हैं। इसलिए वे चैत्य कहलाते हैं ।
४. पू० श्री जयमलजी म. सा. 'चैड़य' शब्द के ११२ अर्थ लिखे हैं जो कि संघ द्वारा प्रकाशित औपपातिक सूत्र के पृ. ६-८ में दिये गये हैं ।
पज्जुवासामि - पर्युपासना - सेवा करता हूं । पर्युपासना तीन प्रकार की कही गयी है - १. कायिक पर्युपासना नम्र आसन से सुनने की इच्छा सहित वंदनीय के सम्मुख हाथ जोड़ कर बैठना - कायिक पर्युपासना है । २. वाचिक पर्युपासना उनके उपदेश के वचनों का वाणी द्वारा सत्कार करते हुए समर्थन करना वाचिक पर्युपासना है । ३. मानसिक पर्युपासनाउपदेश के प्रति अनुराग रखते हुए एकाग्रचित्त रखना मानसिक पर्युपासना है ।
शुद्ध चारित्र पालने वाले श्रमण-निर्ग्रथों की पर्युपासना करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है और महान् पुण्यों का उपार्जन होता है।
छह अध्ययनों में प्रथम सामायिक अध्ययन का स्वरूप इस प्रकार है.
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