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इसी आधार को लेकर भट्टारक देव सेनने अपने "श्रुतभवन दीपक नय चक्र" में लिखा हैं कि निश्चय के अविरोधी व्यवहार का तथा सम्यक व्यवहारसे सिद्ध निश्चय का परमार्थ पना स्वीकार किया गया है । वास्तवमें परमार्थ के विषयमें विमूढ (रहित) एकान्त व्यवहारी, व्यवहार के विषयमें विमूढ एकान्त निश्चय वादी, निश्चय व्यवहार दोनो के विषय में विमूढ एकान्त उभयवादी तथा निश्चय व्यवहार अनुभय के विषयमें विमूढ अनुभयवादी इस सभी के मोह (मिथ्या अभिप्राय) को निराकरण करनेके लिये निश्चय व्यवहारसे आलिंगित वस्तु का निर्णय करना आवश्यक है । इसी प्रकार परस्पर अविनाभावीपनेसे कथंचित् भेदरूप निश्चय व्यवहार की सहज (अनाकुल) सिद्धि होती है, अन्यथा इनका आभास हो जावेगा; अतः (निश्चय सापेक्ष) व्यवहार की प्रसिद्धिसेही निश्चय की प्रसिद्धि हो सकती हैं अन्यथा नहीं।'
इस प्रसंगमें यहां चार प्रकारके एकान्त मिथ्यादृष्टियोंका प्रकार निरूपित किया है- १) व्यवहाराभासी २) निश्चयाभासी ३) उभयाभासी और ३) अनुभयाभासी । इनके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकारके एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि हो सकते हैं । इन्ही
१. तद्यथा निश्चयाविरोधेन व्यवहारम्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्यच परमार्थत्व दिति । परमार्थ मुग्धानां व्यवहारिणां, व्यवहार मुग्धानां निश्चयवादिनां, उभयमुग्धाना मुभयवादिनां, अनुभय मुग्धाना मनुभयवादि निरासार्थं निश्चय व्यवहाराभ्यामालिंगितं कृत्वावस्तु निर्णय । हिःकथंचित् भेदः परस्पराविना भावत्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धिः । अन्यथा भास एव स्यात् । तस्मात् व्यवहार प्रसिदध्यव निश्चय प्रसिद्धि नन्यिघेति । श्रुतभवन दीपक नयचक्र पृ. ८१ ॥
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