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निमित्त का आश्रयही सब कुछ मानते हुए उसीसे अपना हित साधना चाहते हैं उनकी भी और लक्ष्यन होनेसे विपरीत मान्यता टूटती नही है । कार्य तो उपादान से ही होता है कार्य होने के स्वकाल में निमित्त की उपस्थिति अवश्य होती है ऐसी उपादान और निमित्त को काल प्रत्यासत्ति है। निमित्ताधीन दृष्टि हटाने के लिये ही निमित्त का ज्ञान कराया जाता है। क्योंकि सदा निमित्त पर होता है और वह अनुरूप उपादान के अनुकूल ही होता है। ऐसा उपादान निमित्त का यथार्थ ज्ञान न होने से निमित्त मात्रसे कार्य मानने वाले निमित्तवादी भी संसार में दुःख के ही भाजन होते हैं।
४) कोई मेधावी सज्जन व्यवहार और निश्चय इन दोनो नयोंके आश्रयसे ज्ञान और चारित्र की आराधना करना चाहते है। वे ऐसा मानते है कि सिद्ध समान आत्माका अनुभव करना । निश्चय है और शील संयमादिका पालन करना व्यवहार है इस प्रकार निश्चय व्यवहार दो रूप मोक्ष मान कर निश्चय व्यवहार रूप दोनो का साधन करते हुए मिथ्यादृष्टिही बने रहते है; क्योंकि किसी अन्य द्रव्यभावका नाम निश्चय और किसी अन्य का नाम व्यवहार नहीं हैं । एक ही द्रव्य के भाव को उस रूपसे निरूपित करना निश्चय नय है और उपचारसे उस द्रव्यके भावको अन्य द्रव्य के भावरूप निरूपित करना व्यवहार नय है । जैसे मिट्टीका धडा है उसे मिट्टीसे बना हुआ होनेके कारण मिट्टीका घडा निरूपित करना निश्चय नय है और घी रखा जाने के कारण उपचारसे उसे घी का घडा कहना व्यवहार नय हैं । इस दृष्टिरूप ज्ञानके अंश नय की अपेक्षा न समझकर जो वस्तु को ही निश्चय
और व्यवहार रूप मानकर अन्यथा प्रवृत्ति करते है ये भी मिथ्याबुद्धिके कारण मिथ्यादृष्टि ही है ।
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