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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
घुसकर अनेक स्थानो को खोद डालता है ; उसी तरह कामदेव मनुष्य-शरीर में घुस कर अर्थ, धर्म और मोक्ष को खोद बहाता है । स्त्रियाँ देखने, छूने और भोगने से, विषवल्ली की तरह, अत्यन्त व्यामोह-पीड़ा उत्पन्न करती हैं। वे कामरूपी लुब्धक-पारधि या शिकारी की जाल हैं; इसलिये हिरन के समान पुरुषों के लिए अनर्थकारिणी होती हैं। जो मसखरे मित्र हैं, वे तो केवल खानेपीने और स्त्री-विलास के मित्र हैं । इससे वे अपने स्वामी के, परलोक-सम्बन्धी हित का विचार नहीं करते। स्वार्थियों को स्वामी के हित से क्या मतलब ? स्वामी के हित का विचार करने से उनके अपने स्वार्थ में बाधा पड़ती है। उनकी मौज़ में फ़र्क आता है। ये स्वार्थ-तत्पर नीच, लम्पट और खुशामदी होकर, अपने स्वामी को स्त्रियों की बातों, नाच, गाने और दिल्लगी से मोहित करते हैं। बेर के झाड़ के सम्बन्ध से जिस तरह केले का वृक्ष कभी सुखी नहीं होता ;उसी तरह कुसंग से कुलीन पुरुषों का कभी भी अभ्युदय नहीं होताअधःपतन ही होता है। इसलिए है कुलवान स्वामी। प्रसन्न हूजिये। आप स्वयं विज्ञ हैं; इसलिये मोह को त्यागिये और व्यसनों से विरक्त होकर धर्म में मन लगाइये। छाया-हीन वृक्ष, जल-रहित सरोवर, सुगन्ध-विहीन पुष्प, दन्त-बिना हस्ती, लावण्य-रहित रूप, मंत्री बिना राज्य, देव-मूर्ति बिना मन्दिर, चन्द्र बिना यामिनी, चारित्र बिना साधु, शस्त्र-रहित सैन्य और नेत्र रहित मुख जिस तरह अच्छा नहीं लगता ; उसी तरह धर्म