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आदिनाथ-चरित्र ५२
प्रथम पर्व किये जाते हैं ; उतने हीअधिक दुःख और आपदाओं के देनेवाले होते हैं। इनका परिणाम भला नहीं। ये सदा दुःख के मूल हैं । कामदेव, सेवन करने से, तत्काल सुख के देनेवाला जान पड़ता है; परन्तु परिणाम में वह विरस है। खुजाने से जिस तरह दाद बढ़ता है ; सेवन करनेसे उसी तरह कामदेव भी बढ़ता है। दाद में एक प्रकार की खुजली चला करती है, उसमें मनुष्य को अपूर्व आनन्द आता है, उस आनन्द की बात लिखकर बता नहीं सकते। ज्यों ज्यों खुजाते हैं, खुजाते रहने की इच्छा होती है ; खुजाने से तृप्ति नहीं होती; पर परिणाम उसका बुरा होता है; दाद बढ़ जाता है, जिससे नानाप्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं । दाद की सी ही हालत कामदेव की है। स्त्री-सेवन से तत्काल एक प्रकार का अपूर्व आनन्द आता है ; उस आनन्द पर पुरुष मुग्ध हो जाता है । निरन्तर स्त्री सेवन करने से मनकी तृप्ति नहीं होती। वह अधिकाधिक स्त्री-सेवन चाहता है; परन्तु परिणाम इसका भी दाद की तरह खराब ही होता है। मनुष्य का बन्धन और दुःखों से पीछा नहीं छूटता ; क्योंकि कामदेव नरक का दूत, व्यसनों का समुद्र, विपत्ति-रूपी लता का अङ्कर और पाप-वृक्ष का क्यारा है। कामदेव के वश में हुआ पुरुष, मद्य के वश में हुए की तरह, सदाचार रूपी मार्ग से भ्रष्ट होकर, संसार रूपी खड्ड में गिरता है। जहाँ कामदेव की तूती बोलती है, जहाँ कामदेव का आधिपत्य रहता है, वहाँ से सदाचार शीघ्र ही नौ दो ग्यारह होता है। कामदेव पुरुष के सर्वनाश में कोई बात उठा नहीं रखता। जिस तरह गृहस्थ के घर में चूहा