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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पवं
है; अर्थात् अनुकूल अधिकारी की आज्ञा से भले आदमियों को उत्साह होता है 1 रोग से डरा हुआ मनुष्य जिस तरह औषधि पर श्रद्धा रखता है; पाप से डरा हुआ हरिश्चन्द्र उसी तरह सुबुद्धि के कहे हुए धर्म पर श्रद्धा रखता था ।'
एक दिन नगर के बाहर के बगीचे में रहनेवाले शीलंधर नामक महामुनि को केवलज्ञान हुआ; इससे देवता अर्चन करने के लिए वहाँ जारहे थे । यह वृत्तान्त सुबुद्धि ने हरिश्चन्द्र से कहा । यह समाचार पाते ही वह शुद्ध हृदय राजा, घोड़े पर चढ़कर - मुनीन्द्र के पास पहुँचा और उन्हें नमस्कार करके वहाँ बैठ गया । महामुनि ने कुमति रूपी अन्धकार में चन्द्रिका के समान धर्म - देशना उसे दी । देशना के शेष होने पर, राजा ने हाथ जोड़ कर मुनिराज से पूछा - 'महाराज ! मेरा पिता मरकर किस गति में गया है ?' त्रिकालदर्शी मुनि ने कहा - 'राजन ! आप का पिता सातमी नरक में गया है। उसके जैसे को और स्थान ही नहीं है।' इस बात के सुनते ही राजा को वैराग्य उत्पन्न हो
* विषयों के भोगने में रोगोंका, कुल में दोषों का, धन में राज का, मौन रहने में दीनता का, बल में शत्रुओं का, सौन्दर्य में बुढ़ापे का, गुणों में दुष्टों का और शरीर में मौत का भय है । संसार और संसार के सभी कामों में भय है । अगर भय नहीं है, तो एक मात्र वैराग्य में नहीं है, जिस वैराग्य में भय का नाम भी नहीं है और जिसमें सच्ची सुख शान्ति लबालब भरी है, यदि आप को उसी वैराग्य विषय पर सर्वोत्तम ग्रन्थ देखना है, तो आप हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता से सचित्र "वैराग्य शतक" मँगाकर