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प्रथम पर्व
४३७ ऑदिनाथ-चरित्र जाओ ; क्योंकि लगातार लड़ाईमें डटे हुएं वीरोंके पहलेके पहने हुए कवच अवश्यही टूट जायेंगे। रथी पुरुषोंके पीछे-पीछे दूसरे रथ भी तैयार रखो ; क्योंकि जैसे वज्र पर्वतोंको ढा देता है, वैसे हो शस्त्रोंसे रथ ट्ट जाते हैं। पहलेके घोड़े थक जायें और युद्धमें विघ्न हो, इस भयसे अभीसे सैकड़ों अश्व घुड़सवारोंके पीछेपीछे जानेके लिये तैयार कर रखो। प्रत्येक मुकुटबन्ध राजाके पीछे दूसरा हाथी भी तैयार रखो; क्योंकि एकही हाथीसे संग्राममें काम नहीं चल सकता। प्रत्येक सैनिकके पीछे पानी ढोनेवाले भैंसे तैयार रखो ; क्योंकि युद्धचेष्टा रूपी ग्रीष्मऋतुसे तपे हुए वीरोंके लिये वह चलती-फिरती हुई प्याऊका काम देगा। औषधिपति चन्द्रमाके भण्डारकी भांति और हिमगिरिके सारके सदृश ताजी व्रण-संरोहिणो औषधियोंके गट्ठर उखड़वा मंगवाओ।" उनके ऐसे कोलाहलसे रणके बाजोंकी ध्वनिरूपी समुद्र में ज्वार सा आ गया। उस समय सारा संसार चारों ओरसे उठते हुए तुमुल शब्दसे शब्दमय और हथियारोंकी झनझनाहटसे लौहमय हो उठा। मानों पूर्वकी सभी बातें आँखोंदेखी हों, इस तरह से पूर्वपुरुषोंके चारित्र सुनानेवाले, व्यासकी तरह रण-निर्वाहके फल बतलाने वाले और नारदकी तरह वीर योद्धाओंको जोश दि. लानेके लिये सामने आये हुए शत्रुवीरोंका बारम्बार आदर-सहित बखान करनेवाले चरण-भाट, हर एक हाथी, रथ और घोड़ेके पास जा-जाकर पर्व दिवसकी तरह रणसे चंचल होकर इधरसे उधर घूमने-फिरने लगे।
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