Book Title: Aadinath Charitra
Author(s): Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 548
________________ देवजा देवताओं ना देने ल गुफाओं से उत्प 'प्रथम पर्व আখ্রিনাথ নবি लगता था। मूलमें पचास योजन, शिखरमें दस योजन और ऊँचाईमें आठ योजन ऐसे उस शत्रुञ्जय-पर्वत पर भगवान् ऋषभदेवजी आरूढ़ हुए। - वहाँ देवताओं द्वारा तत्काल बनाये हुए समवसरणमें सर्वहितकारी प्रभु बैठे हुए देशना देने लगे। गम्भीर गिरासे देशना देते हुए प्रभुके पीछे वह पर्वत भी मानों गुफाओंसे उत्पन्न होते हुए प्रति शब्दोंके बहाने बोल रहा हो, ऐसा मालूम पड़ता था। चौमासेके अन्तमें जैसे मेघ वृष्टि से विराम पा जाते हैं, वैसेही 'प्रथम पौरुषी होने पर प्रभुने भी देशनासे विश्राम पाया और वहाँसे उठकर मध्यम.गढ़के मण्डलमें बने हुए देवच्छन्दके ऊपर जा बैठे। इसके बाद जैसे माण्डलिक राजाओं के पास युवराज बैठते हों, वैसेही सव गणधरों में प्रधान श्रीपुण्डरीक गणधर स्वामीके मूल सिंहासनके नीचेवाले पाद-पीठपर बैठ रहे और पूर्ववत् सारी सभा बैठी। तब वे भी भगवानकी ही भाँति धर्म-देशना देने लगे। सवेरेके समय पवन जिस प्रकार ओसकी बूंदोंके रूपमें अमृतकी वर्षा करता है, वैसेही दूसरी पौरुषी पूरी होने तक वे महात्मा गणधर देशना देते रहे । प्राणियों के उपकारके लिये इसी प्रकार देशना देते हुए प्रभु अष्टापदकी तरह वहाँ भी कुछ काल तक ठहरे रहे। एक दिन दूसरी जगह विहार करनेकी इच्छासे जगद्गुरुने गणधरों में पुण्डरीकके समान पुण्डरीक गणधरको आज्ञा दी,-“हे महामुनि! मैं यहाँसे अन्यत्र विहार कसँगा और तुम कोटि मुनियोंके साथ यहीं रहो।

Loading...

Page Navigation
1 ... 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588