Book Title: Aadinath Charitra
Author(s): Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

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Page 560
________________ प्रथम पर्व आदिनाथ-चरित्र धातुयें जल गयीं, तब मेधकुमार देवताओंने क्षीर-समुद्रके जलसे चिताग्निको शान्त कर दिया। इसके बाद अपने विमानमें प्रतिमाकी तरह रखकर पूजा करनेके लिये सौधर्मेन्द्रने प्रभुकी ऊपरवाली दाहिनी डाढ़ ले ली, ईशानेन्द्रने ऊपरकी वायीं डाढ़ ले ली, चमरेन्द्रने नीचेकी दाहिनी डाढ़ ली, बलि-इन्द्रने नीचेकी बायीं डाढ़ ली, अन्यान्य इन्द्रोंने प्रभुके शेष दाँत ले लिये और अन्य देवताओंने और-और हड्डियाँ ले ली। उस समय जिन श्रावकोंने अग्नि मांगी, उन्हें देवताओंने तीनों कुण्डोंकी अग्नि दी। वे ही लोग अग्निहोत्री ब्राह्मण कहलाये। वे उस चिताग्निको अपने घर ले जाकर पूजने लगे और धनपति जिस प्रकार निर्वात प्रदेशमें रख कर लक्ष-दीपकी रक्षा करते हैं, वैसेही उस अग्निकी रक्षा करने लगे। इक्ष्वाकु-वंशके मुनियोंकी चिताग्नि शान्त हो जाती तो उसे स्वामीकी चिताग्निसे जागृत कर लेते और अन्य मुनियोंकी शान्त हुई चिताग्निको इक्ष्वाकु-वंशके मुनियोंकी चिताग्निसे चेता देते थे ; परन्तु दूसरे साधुओंकी चिताग्निका वे अन्य दोनों चि. नाग्नियोंके साथ संक्रमण नहीं होने देते थे। वहीं विधि अब तक ब्राह्मणोंमें प्रचलित है। कितनेही प्रभुकी चिताग्निकी भस्मको भक्तिके साथ प्रणाम करते हुए देहमें लगाते थे। उसी समयसे भस्म-भूषाधारी तापस होने लगे। फिर मानों अष्टापद पर्वतके तीन नये शिखर हों, ऐसे उन चिताओंके स्थानपर तीन-रन-स्तूप देवताओंने बना दिये। वहाँसे नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर उन लोगोंने शाश्वत प्रतिमाके समीप .अ

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