Book Title: Aadinath Charitra
Author(s): Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

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Page 567
________________ आदिनाथ चरित्र• प्रथम पर्व उसी चैत्यमें भरतराजाने अपने निन्यानवे भाइयोंकी दिव्यरत्नों की बनी हुई प्रतिमाएँ स्थापित की और प्रभुकी सेवा करती हुई अपनी भी एक प्रतिमा वहीं प्रतिष्ठित की। भक्तिको अतृप्तिका यह भी एक लक्षण है। उन्होंने चैत्यके बाहर भगवान्का एक स्तूप और उसीके पास अपने भाइयोंके भी स्तूप बनवाये । वहाँ आनेवाले लोग आते-जाते हुए उन प्रतिमाओंकी आशातना (अपमान) न करने पायें, इसके लिये उन्होंने लोहेके बने, कल-पुर्जे लगे हुए पहरेदार भी खड़े कर दिये । इन लोहेके बने पहरेदारोंके कारण वह स्थान मनुष्योंके लिये ऐसा दुर्गम हो गया, मानों मर्त्यलोकके बाहर हो । तब चक्रवर्त्तीने अपने दण्डसे उस पर्वतके ऊबड़-खाबड़ पत्थरोंको तोड़कर गिरा दिया। उससे वह पर्वत सीधे और ऊँचे स्तम्भके समान लोगोंके चढ़ने योग्य नहीं रह गया। तब महाराजने उस पर्वतकी टेढ़ी-मेढ़ी मेखलाके समान और मनुष्योंसे नहीं लाँघने योग्य आठ सीढ़ियाँ एक-एक योजनके अन्तरपर बनवायीं । तभीसे उस पर्वतका नाम अष्टापद पड़ा और लोकमें वह हराद्रि, कैलास और स्फटिकाद्रि आदि नामोंसे भी प्रसिद्ध हुआ । इस प्रकार चैत्य निर्माण कर, उसमें प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठाकर, श्वेतवस्त्रधारी चक्रवर्त्तीने उसमें उसी तरह प्रवेश किया, जिस तरह चन्द्रमा बादलोंमें प्रवेश करता है। परिवार सहित उन प्रतिमाओंकी प्रदक्षिणा कर, महाराजने उन्हें सुगन्धित जलसे नहलाया और देवदूष्य वस्त्रोंसे उनका मार्जन किया । इससे वे प्रतिमाएँ रखके आईने की तरह अधिक उज्ज्वल हो गयीं ।। इसके ५४२

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