Book Title: Aadinath Charitra
Author(s): Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 572
________________ प्रथम पर्व 'आदिनाथ-चरित्र देनेवाले और सिद्धि - प्राप्तिके अर्थको सिद्ध करनेवाले महावीर प्रभु! मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ ।" इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकरकी स्तुति कर, प्रणाम करते हुए महाराज भरत उस सिंहनिषद्या- चैत्यसे बाहर निकले और प्यारे मित्रकी तरह पीछे मुड़-मुड़ कर तिरछी नज़रोंसे उसे देखते हुए अष्टापद - पर्वतसे नीचे उतरे । उनका मन उसी पर्व तमें अटका हुआ था, इसीलिए अयोध्याधिपति ऐसी मन्द मन्द गति से अयोध्याकी ओर चले, मानों उनके वस्त्रका छोर वहीं अँटक रहा हो। शोककी बाढ़की तरह सैनिकोंकी उड़ायी हुई धूलसे दिशाओंको व्याकुल करते हुए शोकार्त्त चक्रवर्ती अयोध्या के समीप आपहुँचे, मानो चक्रवर्ती सहोदर हों, इस प्रकार उनके दुःखसे अत्यन्त दुःखित नगर निवासियों द्वारा आँसू भरी आँखोंसे देखे जाते हुए महाराज अपनी विनीता नगरीमें आये । फिर भगवान्‌का स्मरणकर, वृष्टिके बाद बचे हुए मेघकी तरह अश्रु जलके बूंद वरजिसका धन साते हुए वे अपने राजमहलके अन्दर आये । छिन जाता है, वह जिस प्रकार द्रव्यका हो ध्यान किया करता है, वैसेही प्ररूपी धनके छिन जानेसे वे भी उठते-बैठते चलतेफिरते, सोते-जागते, बाहर-भीतर, रात-दिन प्रभुका ही ध्यान करने लगे । यदि कोई किसी और ही मतलब से उनके पास अष्टापद - पर्वतकी ओरसे आ जाता, तो वे यही समझते, मानों वह भी पहलेहीकी भाँति प्रभुका ही कोई संदेसा लेकर आया है। महाराजको ऐसा शोकाकुल देखकर मन्त्रियोंने उनसे कहा ५४७ ―ading

Loading...

Page Navigation
1 ... 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588