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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
प्रदीप्त दीपकवाली आरती ग्रहणकर उस राजदीपकले प्रभुकी आरती उतारी। सबके अन्तमें देवताको प्रणाम कर, हाथ जोड़, उन्होंने इस प्रकार स्तुति करनी आरम्भ की,
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जगन्नाथ ! मैं अज्ञान हूँ, मैं अज्ञान हुँ, तो भी अपनेको योग्य मानकर मैं आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि बालकोंकी तोतली बाणी भी गुरुजनोंको उचित ही मालूम पड़ती है देव ! सिद्ध रसके स्पर्शसे जैसे लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही आपका आश्रय करनेवाले प्राणीके चाहे जैसे कर्म हों, तो भी वह सिद्ध- पदको प्राप्त हो जाता है। हे स्वामी ! आपका ध्यान, स्तुति और पूजन करनेवाला प्राणी अपने मन, वचन और कायाका फल प्राप्त कर लेता है, और वही धन्यपुरूष हैं । हे प्रभु! पृथ्वीमें विहार करते हुए आपके चरण-चिह्न पुरुषोंके पापरूपी वृक्षको उखाड़नेके लिये हाथी के समान काम करते हैं । हे नाथ! स्वाभाविक मोहसे जन्मान्ध बने हुए संसारके जीवों को अकेले आपही विवेकरूपी नेत्र देने में समर्थ हो । जैसे मनके लिये मेरु आदि भी कुछ दूर नहीं है, वैसेही आपके चरणकमलोंमें भ्रमर बनकर लिपटे हुए पुरुषोंके लिये मोक्ष पाना कोई बड़ी बात नहीं है । हे देव ! जैसे मेघका जल पड़ने से जम्बू वृक्षके फल गिर जाते हैं, वैसे ही आपकी देशना रूपी वाणी से ( पानीसे ) प्राणिओंके कर्मरूपी पाश छिन्न-भिन्न हो जाते हैं । हे जगन्नाथ ! मैं बारम्बार प्रणाम करता हुआ आपसे यही वर माँगता हूँ कि आपमें मेरी भक्ति चैसेही अक्षय हो, जैसे समुद्रका जल कभी नहीं घटता ।”
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