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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र योग अन्तमें होता ही है। संयोग और वियोग का जोड़ा है। आज संयोग-सुख है, तो कल वियोगजन्य दुःख अवश्य होगा। मानो परस्पर स्पर्धा से हो, इस तरह इस जगत् में प्राणियों के आयुष्य, धन और यौवन--ये सब नाशमान और जानेके लिए जल्दी करने वाले हैं ; अर्थात् प्राणियों की उम्र, दौलत और और जवानी परम्पर होड़ा-होड़ी करके एक दूसरेसे जल्दी चले जाना चाहते हैं। ये तीनों चञ्चल हैं ; अपने साथीके साथ सदा या चिरकाल तक ठहरने वाले नहीं। जिसने जन्म लिया है, उसे जल्दी ही मरना होगा। जो आज धनी है, उसे किसी न किसी दिन निर्धन होना ही होगा, और जो आज जवान है, उसे कल या परसों बूढ़ा होना ही होगा। मतलब यह कि, धन, यौनव और आयुष्य मनुष्य के साथ सदा या चिरकाल तक टिकने वाले नहीं। जिस तरह मरुदेश या मरुस्थलीमें खादिष्ट जल नहीं होता ; उसी तरह संसार की चारों गतियों में सुख का लेश भी नहीं ; अर्थात् संसारमें दुःख ही दुःख हैं, सुखका नाम भी नहीं। क्षेत्र-दोष से दुःख पाने वाले और परम अधार्मिक होनेके कारण केश भोगने वाले नारकीयों को सुख कहाँ हो सकता है ? शीत, वात, आतप और जल तथा बध, बन्धन और क्षुधा प्रभृतिसे नाना प्रकार के क्लेश भोगने वाले तिर्यञ्च प्राणियों को भी क्या सुख हैं ? गर्भवास, व्याधि, दरिद्रता, बुढ़ापा और मृत्यु से होने वाले दुःखों के फेरमें पड़े हुए मनुष्यों को भी सुख कहाँ है ? परस्पर के मत्सर, अमर्ष, कलह एवं च्यवन आदि दुःखों से देवताओं को भी