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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व
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कठिन है; पर इसके पार लगाने वाले लोकनाथ मेरे पिताही हैं । यह अँधेरे की तरह पुरुषों को अत्यन्त अन्धा करनेवाले मोह को सब तरफ भेदने वाले जिनेश्वर हैं । चिरकाल से संचित कर्म - राशि असाध्य व्याधि-स्वरूपा है। उसकी चिकित्सा करनेवाले यह पिताही हैं। बहुत क्या कहूँ ? करुणारूपी अमृतके सागरजैसे यह प्रभु दुःख - क्लेशों को नाश करनेवाले और सुखों के अद्वितीय उत्पन्न करनेवाले हैं; अर्थात् यह प्रभु करुणासागर हैं । इनके समान दुःखोंके नाश करने और सुखोंके पैदा करनेवाला और दूसरा कोई नहीं है । अहो ! ऐसे स्वामी के होनेपर भी, मोहान्धों में मुख्य मैंने अपने आत्मा को कितने समय तक वंचित किया इस तरह विचार कर, चक्रवतीने धर्म - चक्रवतीं प्रभुसे भक्ति पूर्वक गद्गद् होकर कहा - " हे नाथ ! घास जिस तरह खेतको ख़राब कर देती है; उसी तरह अर्थसाधन को प्रतिपादन करने वाले नीतिशास्त्रोंने मेरी मति बहुत समय तक भ्रष्ट कर दी । इसी तरह मुझ विषय -लोलुपने नाट्य कर्मसे इस आत्माको, नट की तरह, अनेक बार नचाया अर्थात् अनेक प्रकार के रूप धर घर कर, मैंने आत्मा को अनेक नाच नचवाये । यह मेरा साम्राज्य अर्थ और काम को निबन्धन करनेवाला है। इसमें जो धर्मचिन्तन होता है, वह भी पापानुबंधक होता है। आप जैसे पिता का पुत्र होकर, यदि मैं संसार-समुद्र में भ्रमण करूँ, तोमुझमें और साधारण मनुष्य में क्या भिन्नता होगी ? इसलिये जिस तरह मैंने आपके दिये हुए साम्राज्य का पालन किया; उसी तरह अब मैं
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