________________
६५८
विवाहलो परम्परा के विकास में अपभ्रंशितर काल या पुरानी हिन्दी की कृतियों का भी बड़ा हाथ है। हिन्दी जैन साहित्य में इस रूप में मिलने वाली जो रचनाएं है उनका प्रारम्भ १थ्वीं शताब्दी से ही हो जाता है। मंगल शब्द १७वीं शताब्दी के पूर्व व्यवहृत नहीं हुआ । अदुवावधि इस काल में जो विवाहलो संज्ञक रचनाएं मिली है उनमें दो प्रकार की रचनाएं मिलती है:
१- ऐतिहासिक विवाइले
२. रुपक काव्य
राजस्थान गुजरात में विवाहलो काव्य अधिक उपलब्ध होते है । यो बेलि और मंगल की संज्ञाओं से भी काव्य अजन हुआ है। १६वीं शताब्दी की वेलि क्रिसन saणी और रूकमणी मंगल आदि प्रसिद्ध है। वेलि काव्यों के रूप में लगभग छोटे छोटे १५ काव्य उपलब्ध हुए हैं, जो यद्यपि काव्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है परन्तु संख्या की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लेकिन बेलि काव्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला सबसे प्राचीन और महत्व पूर्ण ग्रन्थ वैलिकिसन रुक्मणी है जो १६वीं शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है। बेलि और विवाहलो संज्ञक रचनाओं का शिल्प, कथा कट्टियों की वर्णन पद्धति तथा काव्य रूप दोनों में एक ही है। वेलि रचनाएं विवाहको से पहले की नहीं मिलती।
आदिकाल के हिन्दी जैन साहित्य की विवाहलो सेवक रचनाओं का विल्प उक्त दो प्रकारों के आधार पर ही वर्णित है। एक में महापुरुषों या तीर्थकरी के क्रियाकलापों को एतिहासिक सूत्रों में बांधकर विवाह वर्णन किया गया है और दूसरे प्रकार के अन्तर्गत रूपक विवाहका काव्य है। इन विवाहों को भी बा और द्रब्य दो उपविभागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। रुपक विवाहले बही मौलिकता की सृष्टि करते हैं। इन्य विवाह का सम्बन्ध लौकिक रूप में पति पत्नी का वर्णन मिलता है और माय विवाद में रूपक बांधा जाता है। जैन समाज
मैं दीक्षा ग्रहण करते समय वाचायों का विधिवत संत्री से विवाह होता है।