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मन्तभद्र-विचार-दीपिका
प्रथम भाग
विचारके विषय १ स्व-पर- वैरी कौन १ २ वीतरागकी पूजा क्यों ? ३ वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? ४ पाप-पुण्यकी व्यवस्था कैसे १
जुगलकिशोर मुख्तार
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम मय्या
काल ना
स्वाद
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सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला
द्वितीय प्रकाश
तत्वज्ञानसे परिपूर्ण
समन्तभद्र-विचार-दीपिका
प्रथम माग
लेवर्क जुगलकिशोर मुख़्तार 'युगवीर
"ठाता 'वीर-मेवा-मन्दिर' सरमावा जि. सहारनपुर
AUGn
प्रकाशक
वीर-सेवा-मन्दिर दरिया गंज, देहली
प्रथमावृत्ति १
आश्विन, वीरसंवत् २४८०
अक्तवर १६५४
ई तीन आने
मूल्य-प्रचारके लिये १४) रु० प्रतिशत
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प्रकाशकके दो शब्द
श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तार सरसावा (सहारनपुर) ने अपनी दिवंगता दोनो पुत्रियो सन्मती और विद्यावती की स्मृतिमे एक हजारकी रकम 'सन्मति-विद्या-निधि के रूपमे कुछ वर्ष हुए वीरसेवा-मन्दिरका सत्साहित्यक प्रकाशनाथ सुपुर्द की थी। उसी निधि से 'सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला' चालू की गई, जिसका लक्ष्य है 'सन्मति जिनेन्द्रकी विद्याका-भगवान महावीरक तत्त्वज्ञान और सदाचारका-सहज-बाधगम्य-रीतिम प्रकाशम लाना । इस प्रकाशमालामे अब तक १ अनेकान्त-रस-लहरी, २ श्रीवाहुबलिजिनपूजा, ३ सेवाधर्म और ४ परिग्रहका प्रायश्चित्त नामकी चार पुस्तके क्रमश. प्रथम, तृतीय, चतुर्थ और पंचम प्रकाशके रूपम प्रकाशित हो चुकी है, द्वितीय प्रकाशका स्थान रिक्त था जिसकी पूर्ति 'समन्तभद्र-विचार-दीपिका' के इस प्रथम भाग-द्वारा कीजा रही है। इस पुस्तकके और भी भाग यथाममय निकाले जायेंगे । दूसरी शताब्दीके अद्वितीय विद्वान स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े तत्त्ववेत्ता आचार्य हो गये है जो अपने समयमे वीर-शासनकी हज़ार गुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हाए है, ऐसा एक पुरातन शिलालेखमे उल्लेख है । लोकहितकी दृष्टिसे उनके विचारोंको प्रचारमे लाकर विश्वमे फैलानेकी इस समय बड़ी ज़रूरत है। इसी दृष्टिको लेकर यह पुस्तक लिखी गई, प्रकाशित की गई और प्रचारकोक लिए मूल्य भी कम १४) रु. सैंकड़ा रक्खा गया है। आशा है समन्तभद्रके विचारों एवं तत्त्वज्ञानके प्रेमी इस पुस्तकके प्रचार और प्रसारमे यथेष्ट हाथ बटाएँगे और उससे दूसरे भागोंको भी शीघ्र प्रकाशमे लानेका अवसर प्राप्त होगा।
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका श्रीवर्द्धमानमभिनम्य ममन्तभद्रं मद्वोध-चारुचरिता-ऽनघवाक्-स्वरूपम् । नच्छास्त्र-वाक्य-गत-भद्रविचार-मालां व्याख्यामि लोक-हित-शान्ति-विवेकवद्ध्यै ॥१॥
प्रास्ताविक
उक्त मगलपद्यक साथ जिस विचार-दीपिकाका प्रारम्भ किया जाता है वह उन म्वामी समन्तभद्रके विचारोकी-उन्हींके शास्त्रो परसे लिये गये उनके सिद्धान्तसूत्रो, सूक्तों अथवा अभिमतोकीव्याख्या होगी, जो मद्बोधकी मूर्ति थे-जिनके अन्तःकरणमे देदीप्यमान किरणोंके साथ निमल ज्ञान-सूर्य स्फुरायमान थासुन्दर सदाचार अथवा सञ्चारित्र ही जिनका एक भूषण था, और जिनका वचनकलाप सदा ही निष्पाप नथा वाधारहित था, और इसीलिये जो लोकम श्रीवर्द्धमान थे-वाह्याभ्यन्तर दानो प्रकारकी लक्ष्मीसे-शाभास वृद्धिको प्राप्त थे --और आज भी जिनके वचनो का सिक्का बड़े बड़े विद्वानोंके हृदयापर अकित है * । ___* स्वामी समन्तभद्रका विशेष परिचय पानेके लिये देखो, लेखकका लिग्वा हुया 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहास तथा ‘मन्माव-म्मरमा-मगलपाठ' के अन्तर्गत 'स्वामि-समन्तभद्र-म्मरगा' ।
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका __वास्तवमें स्वामी समन्तभद्रकी जो कुछ भी वचन-प्रवृत्ति होती थी वह सब लोककी हितकामना-लोकमे विवेककी जागृति, शान्तिकी स्थापना और सुख-वृद्धिकी शुभभावनाको लिये हुए होती थी। यह व्याख्या भी उसी उह श्यका लेकर---लोकमे हित की, विवेककी और मुख-शान्तिकी एकमात्र वृद्धि के लिये-लिखी जाती है । अथवा यो कहिये कि जगतका स्वामीजीक विचारोका परिचय कराने और उनसे यथेष्ट लाभ उठानेका अवसर देनेक लिये ही यह सब कुछ प्रयत्न किया जाता है । मैं इस प्रयत्नम कहाँतक सफल हो सकेंगा, यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता । म्वामीजीका पवित्र ध्यान, चिन्तन और आराधन ही मेरे लिये एक आधार होगा---प्राय. व ही इस विषयमे मेरे मुख्य सहायकमददगार अथवा पथप्रदर्शक होग।
यह मै जानता हूँ कि भगवान समन्तभद्रम्वामाके वचनोका परा रहस्य समझने और उनके विचारोका पूरा माहात्म्य प्रकट करनेके लिये व्यक्तित्वरूपसे मै असमर्थ है, फिर भी "अशेष माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय सस्पर्शमिवाऽमृताम्बुधे "- 'अमृत ममुद्रके अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है' म्वामीजीकी इम सूक्तिके अनुसार ही मैने यह सब प्रयत्न किया है । आशा हे दीपिकारूपमं मेरी यह व्याख्या आचार्य महादयके विचारो और उनके वचनोक पूरे माहात्म्यको प्रकट न करती हुइ भी लोकके लिये कल्याणरूप होगी और इस स्वामीजीके विचाररूप-अमृतसमुद्रका केवन संम्पर्श ही समझा जायगा ।
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स्व-पर-वैरी कौन ? स्व-पर-वैरी-अपना और दूसरोका शत्रु-कौन ? इस प्रश्नका उत्तर समारमं अनेक प्रकारसे दिया जाता है और दिया जा सकता है। उदाहरणक लिये
१. स्वपरवरा वह है जा अपन बालकोका शिक्षा नहीं देता, जिसस उनका जीवन खराव हाता है, और उनके जीवनकी खराबीत उसका भी दुख-कष्ट उठाना पड़ता है, अपमानतिरस्कार भोगना पडता है और मत्संततिके लाभोसे भी वंचित रहना होता है।
२. स्वपरचरी वह है जो अपने बच्चोकी छोटी उम्रमे शादी करता है, जिसमें उनकी शिक्षाम बाधा पड़ती है और वे मदा ही दुर्बल, रागी नथा पुरुषार्थहीन-उत्साहविहीन बने रहते है अथवा अकालम ही कालके गालमे चले जाते है । और उनकी इन अवस्थाओस उमको भी बराबर दख-कष्ट भोगना पड़ता है।
३. स्वपरवरी वह है जो धनका ठीक साधन पासमं न होने पर भी प्रमादादिक वशीभूत हुआ राजगार-धंधा छोड़ बैठता है--- कुटुम्बके प्रति अपनी जिम्मेदारीको भुलाकर आजीविकाके लिये कोई पुरुपार्थ नहीं करता, और इस तरह अपनेको चिन्ताओमे डालकर दुखित रखता है और अपने आश्रितजना-बालबच्चो
आदिको भी, उनकी आवश्यकता पूरी न करके, सकट मे डालना तथा कष्ट पहुंचाता है।
४ स्वपरवैरी वह है जो हिंसा, भूठ, चोरी, कुशीलादि दुकम करता है, क्योंकि ऐसे आचरणोके द्वारा वह दूसरोंको ही कष्ट तथा हानि नहीं पहुँचाता बल्कि अपने आत्माको भी पतित करता है
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका और पापोंसे बाँधता है, जिनका दुखदाई अशुभ फल उमे इमी जन्म अथवा अगले जन्ममें भागना पड़ता है।
इसी तरह के और भी बहुतम उदाहरण दिये जा सकते है । परन्तु स्वामी समन्तभद्र इस प्रश्न पर एक दूसरे ही ढगस विचार करते है और वह एमा व्यापक विचार है जिममं दृसरे सब विचार समा जात है। आपकी दृष्टिमं व सभी जन स्व-पर-वैरी है जो 'एकान्तग्रह रक्त' है (एकान्तग्रह रक्ता स्वपरवैरिण.)। अर्थात जो लोग एकान्तके ग्रहणम आसक्त हे सर्वथा एकान्तपक्षके पक्षपाती अथवा उपासक है-आर अनेकान्तको नहीं मानते-वस्तुमे अनेक गुग्ग-धर्मोक होते हुए भी उसे एक ही गुणधर्मरूप अंगीकार करते है वे अपन और परक बैरी है। आपका यह विचार देवागमकी निम्नकारिका ‘कान्तग्रहरपु' 'म्बपरवैरिषु' इन दो पदो परम उपलब्ध होता है -
कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित । एकान्त-ग्रह-रक्तपु नाथ ! स्व-पर-वरिपु ॥ ८ ॥ इस कारिकामे इतना आर भी बतलाया गया है कि एसी कान्त मान्यतावाले व्यक्तियोमम किमीके यहाँ भी-किमीक भी मतमे--शुभ-अशुभ-कर्मकी. अन्य जन्मकी और 'चकार में इस जन्मकी, कर्मफलकी तथा बन्ध-मोक्षादिककी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । और यह सब इम कारिकाका सामान्7 अर्थ है । विशेष अर्थकी दृष्टिसे इससे साकेतिक ने यह भी सनिहित है कि ऐसे पकान्त-पक्षपातीजन स्वपरवरी कैग है और क्योकर उन के शुभऽशुभकर्मों, लोक-परलोक तथा बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था नहीं बन सकती। इस अर्थको अष्टसहनी-जैसे टीका-ग्रन्थोमे कुछ विस्तारके साथ खोला गया है । बाकी एकान्तवादियोकी मुख्य मुख्य कोटियोका वर्णन करते हुए उनके सिद्धान्नाका दृषित
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स्व-पर-वैरी कौन? ठहरा कर उन्हे स्व-पर-वैरी सिद्ध करन ओर अनेकान्तको स्व-परहितकारी सम्यक् सिद्धान्तके रूपमे प्रतिष्ठित करनेका कार्य स्वयं म्वामी समन्तभद्रने ग्रन्थकी अगली कारिकाओमे सूत्ररूपसे किया है । ग्रन्थकी कुल कारिकाएँ ( श्लोक ) ११४ है, जिनपर प्राचार्य श्रीअकलंकदेवने 'अष्टशती' नामकी आठसौ श्लोक-जितनी वृत्ति लिखी है,जो बहुत ही गूढ मृत्रीम है, और फिर इस वृत्तिको साथ से लेकर श्रीविद्यानन्दाचायने 'अष्टमहनी' टीका लिखी है, जो आठ हजार श्लोक-परिमाण है और जिसमें मूलग्रन्थके आशयको खालनेका भारी प्रयत्न किया गया है । यह अष्टसहस्री भी बहुत कठिन है, इसके कठिन पदोको समझने के लिये इसपर आठ हजार श्लोक-जितना एक संस्कृत टिप्पण भी बना हुआ है। फिर भी अपने विपयको पूरी तोरसे समझने के लिये यह अभीतक 'कटमहनी' ही बनी हुई है । और शायद यही वजह है कि इसका अब तक हिन्दी अनुवाद नहीं हो सका । प्रेमी हालतमे पाठक ममझ सकते है कि स्वामी समन्तभद्रका मूल 'देवागम' ग्रन्थ कितना अधिक अर्थगौरवको लिये हर है । अकलकदेवनं तो उसे 'सम्पूर्ण पदार्थतत्त्वोको अपना विपप करनेवाला म्याद्वादरूपी पुण्याधितीर्थ' लिखा है । इस लिय मेरे जैसे अल्पज्ञों-द्वारा समन्तभद्रके विचारोकी व्याख्या उनको स्पर्श करनेके मियाय और क्या हो सकती है ? इसीले मेरा यद प्रयत्ती माधारण पाठकोके लिय है-विशेषज्ञों के लिये नत । अन्तु, इन प्रासगिक निवेदनके बाद अब मैं पुन. प्रफुन विषय पर आता है और उगको सक्षेपमे ही साधारण जनताके लिये कुछ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ।
वास्तवमे प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-उममे अनेक अन्तधर्म, गुण-स्वभाव अग अथवा अंश है। जो मनुष्य किसी भी वस्तुको एक तरफम देवता है-उसक एक ही अन्त-धर्म अथवा गुण-स्वभाव पर दृष्टि डालता है-वह उमका सम्यग्द्रष्टा ( उसे
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका
ठीक तौरसे देखने - पहिचाननेवाला) नहीं कहला सकता । सम्यग्द्रष्टा होनेके लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिये और उसके सब अन्तो, अगो-धर्मों अथवा स्वभावों पर नज़र डालनी चाहिये। सिक्केके एक ही मुखको देखकर मिक्केका निर्णय करनेवाला उस सिक्केको दूसरे मुखसे पड़ा देखकर वह सिक्का नहीं समझता और इस लिये धोखा खाता है । इसीमे अनेकान्तको सम्यग्दृष्टि और एकान्तदृष्टिको मिध्यादृष्टि कहा है ।
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जो मनुष्य किसी वस्तु के एक ही अन्त. अग. धर्म अथवा गुण-स्वभावको देखकर उसे उस ही स्वरूप मानता है - दूसरे रूप स्वीकार नहीं करता - और इस तरह अपनी एकान्त धारणा बना लेता है और उसे ही जैम तमे पुष्ट किया करता है, उसको 'एकान्त - ग्रहरक्त', एकान्नपक्षपाती अथवा सर्वथा एकान्तवादी कहते है। ऐसे मनुष्य हाथीके स्वरूपका विधान करनेवाले जन्मान्ध पुरुषोकी तरह आपसमे लड़ते झगडते है और एक दूसरेसे शत्रुता धारण करके जहॉ परके वैरी बनते है वहाँ अपनेको हाथी के विषय में अज्ञानी रखकर अपना भी अहित साधन करनेवाले तथा कभी भी हाथ हाथीका काम लेनेमे समर्थ न हो सकने वाले उन जन्मान्धोंकी तरह अपनेको वस्तुस्वरूपमे अनभिज्ञ रखकर अपना भी अहित साधन करते हैं और अपनी मान्यताको छोड अथवा उसकी उपेक्षा किये बिना कभी भी उस वस्तुसे उस वस्तु का ठीक काम लेनेमे समय नहीं हो सकते, और ठीक काम लेनेके लिये मान्यताको छोड़ने अथवा उसकी उपेक्षा करनेपर स्वमित्रान्त
* अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्यय ।
नत' सर्व मृषोक्न स्यात्तदयुक्त स्वघातत ॥ --स्वयम्भूस्तोत्रे, समन्तभद्र.
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स्व-पर-वैरी कौन? विरोधी ठहरते है; इस तरह दोनो ही प्रकारमं वे अपने भी वैरी होते है । नीचे एक उदाहरण-द्वारा इस बात को और भी स्पष्ट करकं बतलाया जाता है___एक मनुष्य किमी वैद्यको एक रागापर कुचलका प्रयोग करना हुआ देखता है और यह कहते हुम् भी सुनता है कि 'कुचला जीवनदाता है, रोगको नशाता है और जीवनी शक्तिको बढ़ाता है। साथ ही, वह यह भी अनुभव करता है कि वह रागी कुचल के खानस अच्छा तन्दुरुस्त तथा हृष्टपुष्ट होगया । इस परम व. अपनी यह एकान्त धारणा बना लेता है कि 'कुचला जीवनदाना है, राग नशाता है भीर जीवनी शक्तिको बढाकर मनुष्यका दृष्टपुष्ट बनाता है। उसे मालूम नहीं कि कुचलम मारनका-जीवन को नष्ट कर देनेका-भी गुण है, और उसका प्रयोग मव रोगा नथा सब अवस्थाओमे समानरूपमे नहीं किया जा मकता न उम मात्राकी ठीक स्वबर है. और न यही पता है कि वह वेद्य भा कुचलक दूसरे मारकगुगस परिचित था, और इस लिये जन वह उम जीवनी शक्तिका बढानेके काममं लाता था तब वह दूसरी दवाइयोंक माथी उसका प्रयाग करके उसकी गारक शक्तिको दवा देता था अथवा उम उन जीवजन्तुयाके घातक काममं लेना था जा रोगीके शरीरमं जीवनी शक्तिको नष्ट कर रहे हो । ओर इस लिये वह मनुप्य अपनी उस एकान्न धारणा अनुमार अनेक रोगियोको कुचला देता है तथा जल्दी अन्छा करनकी धुनम अधिक मात्राम भी दे देता है । नतीजा यह होता है कि वे रोगी मर जाते है या अधिक कप्ट तथा वदना उठात है और वह मनुप्य कुचलेका ठीक प्रयोग न जानकर उसका मिथ्या प्रयोग करनेके कारण दण्ड पाता है, तथा कभी स्वय कुचला खाकर अपनी प्राणहानि भी कर डालता है। इस तरह कुचलेके विपयमे एकान्त आग्रह रखनेवाला जिस प्रकार म्व-पर-वैरी होता है उसी
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका प्रकार दूसरी वस्तुअोके विषयमे भी एकान्त हठ पकड़ने वालोंको म्व-पर-वैरी समझना चाहिये। ___ मच पूछिये तो जो अनेकान्तके द्वेषी है वे अपने एकान्तके भी द्वेपी है, क्योकि अनेकान्नके बिना वे एकान्तका प्रतिष्टित नहीं कर सकते-अनेकान्तके विना एकान्तका अस्तित्व उसी तरह नहीं बन सकता जिस तरह कि सामान्यके बिना विशेषका या द्रव्यके बिना पर्यायका अस्तित्व नहीं बनता । मामान्य और विशेप, अस्तित्व और नास्तित्व तथा नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म जिस प्रकार परस्परम अविनाभाव-सम्बन्धको लिये हुए है - एकके बिना दूमरेका सद्भाव नहीं बनता ---उसी प्रकार एकान्त
और अनेकान्तमे भी परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है । ये सब मप्रतिपक्षधर्म एक ही वस्तुम परस्पर अपेक्षाको लिग हुए होते है। उदाहरणके तौरपर अनामिका अंगुली छोटी भी है और बड़ी भी-कनिष्प्रामे वह बड़ी है और मध्यमाम छोटी है । इस तरह अनामिका में छोटापन और बडापन दोनो धर्म सापेक्ष है, अथवा छोटी है और छोटी नहीं है स छोटेपन अस्तित्व और नास्तित्वम्पदा अविनाभावी धर्म भी उसमें सापेक्षरूपले पाये जाते है अपनाया छोट देनपर दोनोमग को भी नर्म नही बनता। इसी प्रकार नदीक प्रत्येक नट में हम पारपन चोर उस पारपनके दोनो धर्म होने के और व सापेन हनिम हा अविरोधरूप रहते है ।
जो धर्म एक ही वस्तुम परन्तर अपेक्षाको लिये हा होत है वे अपने और दुसरेके उपकारी ( मित्र ) हाते : और अपनी तथा दरसरेकी सत्ताको बनाये रत्वते है। गौर ना धर्म परम्पर अपेक्षाको लिये नहीं होते वे अपने और दूसरेक अपकारी ( शत्रु) लात है.--स्व-पर-प्रणाशक होते है, और इमलिये न अपनी सत्ताको कायम रस सकते है और न दसकी। इमीसे स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयंभूस्तोत्रमे भी
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स्व-पर-वैरी कौन ? "मिथोऽनपेक्षाः स्व-पर-प्रणाशिनः" "परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः" इन वाक्योके द्वारा इसी सिद्धान्तकी स्पष्ट धापणा की है । आप निरपेक्षनयोको मिथ्या और मापेक्षनयोको मम्यक बतलाते है। आपके विचारसे निरपेक्षनयोका विपय अर्थक्रियाकारी न होने में अवस्तु है और सापेक्षनयाका विषय अर्थकृत (प्रयोजनसाधक) होनेमे वस्तुतत्त्व है । इस विपयकी विशेष चर्चा एव व्याख्या इसी विचारदीपिकामे अन्यत्र की जायगी । यहॉपर सिर्फ इतना ही जान लेना चाहिये कि निरपेक्षनयोका विषय 'मि' या एकान्त' और सापेक्षनयोका विषय 'सम्यक एकान्त' है। और यह सम्यक एकान्त ही प्रस्तुत अनेकान्तक साथ अविनाभावसम्बन्धको लिये हा है। जो मिथ्या एकान्तके उपासक होते है उन्हें ही 'कान्तग्रहरक्त' कहा गया है. वही 'सर्वथा एकान्तवादी' कहलाते है और उन्हें ही यहाँ 'स्वपरवैरी' समझना चाहिये । जो सम्यक एकान्तके उपासक होते है उन्हे 'कान्तग्रहरक्त' नहीं कहत, उनका नेता 'म्यात' पद होता है, व रस एकान्तको कथंचित रूपने स्वीकार करते है. इसलिये उसमे मर्वथा श्रासन नहीं होने और न प्रतिपक्ष धर्मका विरोध अथवा निराकरा की मते --- सापेक्षावस्थाम विचारक नमय प्रतिपक्ष धर्मकी पेक्षा न होने सके प्रति एक प्रकारकी उपेक्षा ना होती है किन्तु उसका विरा अपवा निराकरण नहीं होता । और इसीमे वे 'स्व-पर-वैरी' न बह जा सकते । अत म्वामी मान्त मद्रक यह रहना विन्कुल ठीक है कि 'जो एकान्तग्रहरक्त होते है वे म्ब परवैरी होते है।' ___ अब देखना यह है कि ये मनपरवैरी एकान्तवादियोके मनमें शुभ-अशुभ-कर्म, कर्मफल, सुन्व-दुख जन्म-जन्मान्तर (लोक* निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वम्त तेऽर्थकृत ।। १०८ ।। —देवागम
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका
परलोक ) और बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था कैसे नहीं बन सकती । बात बिल्कुल स्पष्ट है, ये सब अवस्था चूँकि अनेकान्ताश्रित है— अनेकान्तके आश्रय बिना इन परस्पर विरुद्ध मालूम पड़ने वाली मापेक्ष अवस्थाकी कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा व्यवस्था नही वन सकती, इसलिये जो अनकान्तके वैरी है- अनेकान्तसिद्धान्तमे द्वेष रखते है -उनके यहा ये सब व्यवस्था सुघटित नहीं हो सकतीं । अनेकान्तके प्रतिषेव क्रम अक्रमका प्रतिषेध हा जाता है, क्योंकि क्रम अक्रमकी अनेकान्तक साथ व्याप्ति है । जब अनेकान्त ही नहीं तब क्रम अक्रमको व्यवस्था के वन सकती है? अर्थात द्रव्य के अभाव में जिस प्रकार गुण पर्यायका र वृक्षक अभावमं शीशम, जामन, नीम, आम्रादिका कोई व्यवस्था नहीं बन सकती उसी प्रकार अनेकान्तक प्रभावमं क्रम-यक्रमकी मी व्यवस्था नहीं बन सकती । क्रमाक्रमकी व्यवस्था न वननस अर्थक्रियाका निषेध हो जाता है, क्योंकि क्रियाका क्रम क्रम के साथ व्याप्ति है । यर अथत्रियाके भाव कर्मादिक नहीं बन सकते - कर्मादिककी अथक्रिया के साथ व्याप्ति है। जब शुभशुभ कर्म ही नहीं बन सकते तब उनका फल मुख-दुख, फलभोगका क्षेत्र जन्म-जन्मान्तर ( लोक-परलोक ) और कर्मोनि वने तथा छूटने की बात तो कैसे बन सकती है साराश यह कि अनेकान्तके आश्रय विना ये सब शुभाशुभ - कर्मादिक निराश्रित हो जाते है, और इसलिये सवा निव्यादि एकान्तवादियों के मतम इनकी काई ठीक व्यवस्था नहीं बन सकती । वे यदि इन्हें मानते है और तपश्चरणादिक अनुष्ठान द्वारा सत्कर्मोका अजन करके उनका सत्फल लेना चाहते है अथवा कम मुक्त होना चाहते है तो वे अपने इस इको अनेकान्तका विरोध करक बाधा पहुँचाते है, और इस तरह भी अपनेको स्व-परर-वैरी सिद्ध करते है ।
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वीतरागको पूजा क्यो ? वस्तुतः अनेकान्त, भाव-अभाव नित्य-अनित्य भेद-अभेद आदि एकान्तनयोके विरोधको मिटाकर, वस्तुतत्त्वकी सम्यकव्यवस्था करनेवाला है इमीसे लोक-व्यवहारका सम्यक् प्रवर्तक है-बिना अनेकान्तका आश्रय लिये लोकका व्यवहार ठीक बनता ही नही, और न परस्परका वैर-विरोध ही मिट सकता है। टमीलिये अनेकान्तको पस्मागमका बीज और लोकका अद्वितीय गुरु कहा गया है --वह मवोके लिये मन्मार्ग-प्रदर्शक है * । जैनी नीतिका भी वही मूलाधार है। जो लोग अनेकान्तका सचमुच
आश्रय लेते है वे कभी म्व-पर-वैरी नहीं होते, उनसे पाप नहीं बनते, उन्हें आपदाएं नहीं सताती, और वे लोकमे मदा ही उन्नत उदार नथा जयशील बने रहने है।
वीतरागकी पूजा क्यों ? जिमकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजासे प्रसन्न होता है, और प्रसन्नताक फलस्वरूप पूजा करनेवालेका कोई काम बना देना अथवा सुधार देना है ना लोकमें उसकी पूजा मार्थक समझी जाती है। और पूजाम किमीका प्रसन्न होना भी तभी कहा जा सकता है जब या तो वह उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उससे उसकी प्रसन्नताम कुछ वृद्धि होनी हो अथवा उससे उसका कोई दूसरे प्रकारका लाभ पहुँचना हंः, परन्तु वीतरागदेवक विषय में यह सब कुछ भी नहीं कहा जा सकता-व न किसीपर प्रसन्न हात है, न अप्रसन्न और न किसी प्रकारकी कोई इच्छा ही रखते है, जिसकी पूति-अर्निपर उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता निर्भर
* नीति-विरोध-: वर्मी दोकव्यवहारवतक सम्यक् । परमागममा बीउ भुवनैकगुम् जपत्यनेकान्तः ॥
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका हो। वे सदा ही पूर्ण प्रसन्न रहते है उनकी प्रसन्नतामे किसी भी कारणने कोई कमी या वृद्धि नहीं हो सकती। और जब पूजाअपृजासे वीतरागदेवकी प्रसन्नता या अप्रसन्नताका कोई सम्बन्ध नहीं-वह उसकेद्वारा समाव्य ही नहीं-तब यह तो प्रश्न ही पैदा नही होगा कि पूजा से की जाय, कव की जाय, किन द्रव्योम की जाय, किन मन्त्रो की जाय और उसे कौन करेकौन न कर ? और न यह शंका ती की जा सनाती है कि प्रविधिसं पूजा करने पर कोई अनिष्ट घटिन हो जायगा, अपवा किमी अधर्म-अमन-पावन मनुष्यके पृजा कर लेनेपर यह देव नाराज ह। जागना और उसकी नाराजगी उस सप्य तथा मनचे समाजको किनी वो कापका भाजन बनना पडेगा, क्योंकि ऐसी का करने पर वह देव पीनराग ही नहीं ठहरंगाउसके वीतराग हानेसे इनकार करना होगा और उसे भी दूसर देवी-देवताओकी तरह रागी-द्वेषी मानना पड़गा। इसीम अक्सर लोग जैनियोम कहा करते है कि-"जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासनाकी कोई जरूरत नहीं, कर्ता-हर्ता न होनसे वर किमीका कुछ देता-लता भी नही, तव उसकी पूजा-वन्दना क्यो की जानी है और उससे क्या नतीजा है ?"
इन सब बानोंको लयमें रखकर स्वामी समन्तभद्र, जो कि वीतरागदेवोको सबसे अधिक पूजाके योग्य समझते थे और स्वयं भी अनेक स्तुति-स्तोत्रो आदिके द्वारा उनकी पूजाम मदा मावधान एव नन्पर रहते थे, अपने स्वयंभूस्तोत्र में तिखते है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त-वैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।।
अर्थात-हे भगवन् पूजा-वन्दनास आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योकि आप वीतरागी है-रागका अंश भी आपके
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वीतरागकी पूजा क्यों ? आत्मा मे विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-वन्दना से श्राप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नहीं सकता, क्योकि आपके आत्मासे पैरभाव-द्वेपाश बिलकुल निकल गया है- वह उसमें विद्यमान ही नहीं है--जिसम क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्याका उद्भव हो सकता। एसी हालतमं निन्दा और स्तुति दोनो ही आपके लिये समान है -उनसे आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है । यह सब ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो
आपकी पूजा-वन्दनादि करत है उसका दूसरा ही कारण है, वह पृजा-वन्दनादि आपक लिय नहों-पापको प्रसन्न करक आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वारा आपको कोई लाभ पहुँचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्यगुणाका स्मरण-भावपूर्वक अनुचिन्तन -, जो हमारे चित्तको---- चिद्रप आत्माका-पापमलोस छुडाकर निमल एवं पवित्र बनाता है, और इस तरह हम उसक द्वारा अपने यान्माके विकासको साधना करते है । इसीसे पद्य उत्तरार्धमे यह सैद्धान्तिक घोपणा की गइ है कि 'आपक पुण्य-गुणाका स्मरण हमार पापमलस मलिन आत्माको निर्मल करता है-उसके विकास सचमुच महायक हाता है।
यहाँ पीतराग भगवानक पुण्य-गुग्गोके स्मरणम पापमलसे मलिन आत्माक निर्मल (पवित्र) होनकी जो बात कही गई है वह बड़ी ही रहम्यपूर्ण है, ओर उमम जनवमके आत्मवाद, कमवाद, विकासवाद और उपासनावाद-जैस सिद्धान्तोका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमे मनिहित है । इस विपयमे मैने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातत्त्व' और 'सिद्धिमोपान' जैसी पुस्तकोमे किया है स्वयम्भूम्तोत्रकी प्रस्तातनाके 'भक्तियोग और स्तुति-प्रार्थनादि
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका रहस्य' नामक प्रकरणसे भी पाठक उसे जान सकते है। यहॉपर मै सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने वीतरागदेवके जिन पुण्य-गुणोके स्मरणकी बात कही है वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अात्माके अमाधारण गुण है, जो द्रव्यदृष्टिस सब आत्माओके समान होने पर सबकी समान-सम्पत्ति है और मभी भव्यजीव उन्हें प्राप्त कर मकते है । जिन पापमलोन रन गुणोको आच्छादित कर रक्खा है व ज्ञानावरणादि आठ कम है, योगवलसे जिन महात्माओने उन कममलोका दग्ध करके आत्मगुणोका पूर्ण विकास किया है व ही पूर्ण विकसित, सिद्धात्मा एवं वीतराग कह जाते है-शेष सब ममारी जीव अविकसित अथवा अल्पविकसितादि दशाओमे है
और वे अपनी आत्मनिधिको प्राय. भूले हुए है । सिद्धात्माओके विकसित गुणोपरसे व आत्मगुणोका परिचय प्राप्त करते है और फिर उनमे अनुराग बढ़ाकर उन्हीं साधनो-द्वारा उन गुणोंकी प्राप्ति का यान करते है जिनके द्वारा उन सिद्धात्माओने किया था। और इसलिये व सिद्धात्मा वीतरागदेव आत्म-विकासके इच्छुक संसारी
आत्माओके लिये ‘आदर्शरूप' होते है, आत्मगुणोके परिचयादिमें महायक होनेसे उनके 'उपकारी होते है और उस वक्त तक उनके 'आराध्य रहते है जबतक कि उनके आत्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जाय । इमीसे म्यामी समन्तभद्रने "तत स्वनि श्रेयमभावनापरेबंधप्रवेकैर्जिनशीतलड्यसे (म्ब ५०)" इस वाक्यके द्वारा उन बुधजन-श्रेष्ठो तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको आवश्यक बतलाया है जो अपने नि.श्रेयसकी-आत्मविकासकी-भावनाम मदा मावधान रहते है । और एक दूसरे पद्य 'स्तुति म्तातु साधोः' (म्ब० ११६) में वीतरागदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामो की हेत बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है । माथ ही, उसी स्तोत्रगत नीचेके एक पद्यमें
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वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? वे योगबलसे आठो पापमलोको दूरकरके संसारमे न पाये जाने वाले ऐसे परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माओ का स्मरण करते हुए अपने लिये तद्रूप होने की स्पष्ट भावना भी करते है, जो कि वीतरागदेवकी पूजा-उपासनाका सञ्चा रूप है - दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । अभवदभव-सौख्यवान् भवान्भरतु ममाऽपि भवोपशान्तये॥
म्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारोसे यह भले प्रकार स्पष्ट होजाता है कि वीतरागदेवकी उपासना क्यो की जाती है और उसका करना कितना अधिक आवश्यक है।
वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? वीतरागकी पूजाके प्रतिष्ठित होजाने पर अब यह प्रश्न पैदा होता है कि जब वीतराग अर्हन्तदेव परम उदासीन एवं कृतकृत्य होनेसे कुछ करते-धरते नहीं तब पूजा-उपासनादिके अवसरोंपर उनसे बहुधा प्रार्थनाएँ क्यो कीजाती है और क्यों उनमें व्यर्थ ही कतृत्व-विषयका आरोप किया जाता है ?—जिसे स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् आचार्योंने भी अपनाया है। यह प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है और सभीके लिये इसका उत्तर वांछनीय एवं जाननेके योग्य है । अतः इसीके समाधानका यहाँ प्रयत्न किया जाता है । ____ सबसे पहली बात इस विषयमे यह जान लेनेकी है कि इच्छापूर्वक अथवा बुद्धिपूर्वक किसी कामको करनेवाला ही उसका कर्ता नहीं होता बल्कि अनिच्छापूर्वक अथवा अवुद्धिपूर्वक कार्यका करनेवाला भी कर्ता होता है । वह भी कार्यका कर्ता होता है
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१८ समन्तभद्र-विचार-दीपिका जिसमे इच्छा-बुद्धिका प्रयोग ही नहीं बल्कि सद्भाव ( अस्तित्व ) भी नहीं अथवा किसी समय उसका संभव भी नहीं है । ऐसे इच्छाशून्य तथा बुद्धिविहीन कर्ता कार्याके प्राय. निमित्तकारण ही होते है और प्रत्यक्षरूपमे तथा अप्रत्यक्षरूपमें उनके कर्ता जड और चेतन दोनो ही प्रकारके पदार्थ हा करते है । इस विषयके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जाते है, उन पर जरा ध्यान दीजिये -
(१) 'यह दवाडे अमुक रागका हरने वाली है। यहाँ दवाइम कोई इच्छा नहीं और न बुद्धि है, फिर भी वह रागको हरनेवाली है-रोगहरण कार्यकी कर्ता कही जाती है; क्योंकि उसके निमित्तसे रोग दूर होता है।
(२) 'इस रमायनके प्रमादसे मुझे निरोगताकी प्राप्ति हुई।' यहाँ 'रसायन' जड़ औपधियोका समूह होनेसे एक जड पदार्थ है, उसमे न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तम आरोग्य-लाभ करता है और उस रसायनम प्रसन्नताका आरोप करता हुआ उक्त वाक्य कहता । यह सब लाकव्यवहार है अथवा अलकारकी भाषामे कहनेका एक प्रकार है । इसी तरह यह भी कहा जाता है कि 'मुझे इस रसायन या दवाई ने अच्छा कर दिया' जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इन्छापूर्वक उसके शरीरमं कोई काम नही किया । हाँ उसके निमित्तसे शरीरम रोगनाशक तथा आरोग्यवर्धक कार्य जरूर हुआ है और इसलिये वह उसका कायं कहा जाता है।
(३) एक मनुप्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुप्य निना छत्रीक सामनेसे पा रहा था। सामनेवाले मनुष्यकी दृष्टि जब छत्रीगर पड़ी तो उसे अपनी छत्रींकी याद आगई ओर यह स्मरण हो पाया कि 'मैं अपनी छत्री अमुक दुकानपर भूल आया हूँ; चुनॉचे वह तुरन्त वहाँ गया और अपनी छत्री ले
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वीतराग से प्रार्थना क्यो ?
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आया और आकर कहने लगा-- -- "तुम्हारी इस छत्रोका मै बहुत आभारी हूँ, इसने मुझे मेरी भूली हुई छत्रीकी याद दिलाई है।' यहाँ छनी एक जडवस्तु है, उसमे बोलनेकी शक्ति नहीं, वह कुछ बोली भी नहो और न उसने बुद्धिपूर्वक छत्री भूलने की वह बात ही सुकाई है फिर भी चूंकि उसके निमित्तमे भूलो हुई छत्रीकी स्मृतियादिरूप यह सब कार्य हुआ है इसीसे अलकृत भाषामे इसका आभार माना गया है 1
( ४ ) एक मनुष्य किसी रूपवती स्त्रीको देखते ही उस पर आसक्त होगया, तरह-तरह की कल्पनाएँ करके दीवाना बन गया और कहने लगा- 'उस स्त्रीने मेरा मन हर लिया, मेरा चित्त चुरा लिया, मेरे ऊपर जादू कर दिया | मुझे पागल बना दिया। चव मै बेकार है और मुझसे उसके बिना कुछ भी करते - धरते नहीं बनता । परन्तु उस बेचारी स्त्रीको इसकी कुछ भी खवर नही- किसी बात का पता तक नही और न उसने उस पुरुषके प्रति बुद्धिपूर्वक कोई कार्य ही किया है— उस पुरुषने ही कहीं ना हुए उसे देख लिया है, फिर भी उस स्त्रीके निमित्तको पाकर उस मनुष्य के आत्म-दोपोको उत्तेजना मिली और उसकी यह सब
हुई। इससे वह उसका सारा दोष उस स्त्रीक मत्थे मढ़ रहा है, जब कि वह उसमें अज्ञातभावसे एक छोटासा निमित्तकारण बनी है, बड़ा कारण तो उस मनुष्यका ही आत्मदीप था ।
(५) एक दुखित और पीड़ित गरीब मनुष्य एक सन्तके पाश्रयमे चला गया ओर वडे भक्ति-भाव के साथ उस सन्तकी सेवा-शुश्रूषा करने लगा | वह सन्न संसार-र-भोगो विरक्त है— वैरागसम्पन्न है— किसीसे कुछ बोलना या कहता नहींसदा मौनसे रहता है । उस मनुष्यकी पूर्व मक्तिको देकर पिछले भक्त लोग सब ग रह गये । अनी भक्तिका उसकी भक्ति के आगे नगण्य गिनने लगे और बड़े आदर सत्कार के साथ
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका उस नवागन्तुक भक्तहृदय मनुष्यको अपने-अपने घर भोजन कराने लगे और उसकी दूसरी भी अनेक आवश्यकताओकी पूर्ति बड़े प्रेमके साथ करने लगे, जिससे वह सुरवसे अपना जीवन व्यतीत करने लगा और उसका भक्ति-भाव और भी दिन पर दिन बढ़ने लगा । कभी-कभी वह भक्तिमे विह्वल होकर सन्तके
चरणोमे गिर पड़ना और बड़े ही कम्पित स्वरमे गिड़गिड़ाता हुआ कहने लगता-'हे नाथ | श्राप ही मुझ दीन-हीनके रक्षक है, आप ही मेरे अन्नदाता है, आपने मुझे वह भोजन दिया है जिससे मेरी जन्म-जन्मान्तरकी भूख मिट गई है। आपके चरणशरणमे आनेसे ही मै सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दु.ख मिटा दिये है और मुझ वह दृष्टि प्रदान की है जिससे मै अपनेको और जगत्को भले प्रकार देख सकता हूँ। अब दयाकर इतना अनुग्रह और कीजिये कि मैं जल्दी ही इस संसारके पार हो जाऊँ।' यहाँ भक्त-द्वारा सन्तके विपयम जो कुछ कहा गया है वैसा उस सन्तने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया। उसने तो भक्तके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये किसीसे संकेत तक भी नहीं किया
और न अपने भोजनमेंसे कभी कोई प्रास ही उठाकर उसे दिया है; फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था होगई । दूसरे भक्त जन स्वयं ही बिना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करनेमें प्रवृत्त होगये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे। इसी तरह सन्तने उस भक्तको लक्ष्य करके कोई खास उपदेश भी नहीं दिया; फिर भी वह भक्त उस सन्तकी दिनचर्या और अवाग्विसर्ग ( मौनोपदेशरूप ) मुख-मुद्रादिक परसे स्वयं ही उपदेश ग्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त होगया। परन्तु यह सब कुछ घटित होनेमे उस सन्त पुरुपका व्यक्तित्व ही प्रधान निमित्त कारण रहा है-भले ही वह कितना ही उदासीन क्यो न हो । इसीसे भक्त-द्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुष
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वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? २१ को ही दिया गया है।
इन सब उदाहरणो परसे यह बात सहज ही समझमे श्रा जानी है कि किलो कायका कर्ता या कारण होनेके लिये यह लाजिमी ( अनिवार्य ) अथवा जरूरी नहीं है कि उसके साथमे इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हो, वह उसके बिना भी हो सकता है ओर हाता है। साथ हो, यह भी स्पष्ट होजाता है कि किमी वस्तुको अपने हाथ उठाकर देने या किसीको उसके देने की प्रेरणा करकं अथवा आदेश देकर दिला देनसे ही कोई मनुष्य दाता नहीं होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है; जब कि उमक निमित्तसं, प्रभावसे आश्रयमे रहनस, सम्पर्कमे आनसे, कारणका कारण बननस काई वस्तु किसीको प्राप्त होजाती है। ऐसी स्थितिम परमवीतराग श्रीअर्हन्तादिदेवोमे कर्तृत्वादि-विपयका आरोप व्यर्थ नहीं कहा जा सकताभले ही वे अपने हायस मीधा किसीका कोई कार्य न करने हो, माहनीय कमक अभावम उनमें इच्छाका अस्तित्व नक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या आज्ञा देना ही उनसे बनता हो, क्योंकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पृजन, भजन, कीर्तन, स्तवन और आराधनस जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि और आत्माकी विशुद्धि होती है जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है- तब फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय?* सभी काय मिद्धिको प्राप्त होते है, भक्तजनोकी मनोकामनाएं पूरी हाती है और इमलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि 'हे भगवन ! आपके प्रसादम मेरा यह कार्य सिद्ध होगया।', जैसे कि रसायन के प्रसाढस प्रारोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है। रसायन औषधि जिस प्रकार अपना मेवन करने वालेपर प्रसन्न नहीं होती और
* "पृण्यप्रभावात् कि कि न भवति".---'पृण्यके प्रभावमे क्या-क्या नही होता' ऐसी लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है।
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान भी अपने सेवक पर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न ही करते है। प्रसन्नतापूर्वक सेवन-आराधनके कारण ही दोनोंमे रसायन और वीतरागदेवमे--प्रसन्नताका आरोप किया जाता है और यह अलंकृत भापाका कथन है। अन्यथा दोनोंका कार्य वस्तुस्वभावके वशवर्ती, संयोगोकी अनुकूलताको लिये हुए, स्वतः होता है-उममें किमीकी इच्छा अथवा प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं है।
यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिस एक बात और प्रकट कर देने की है और वह यह कि, ससारी जीव मनसे, वचनसे व कायसे जो क्रिया करता है उससे आत्मामे कम्पन ( हलन-चलन ) होकर द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमाणुओका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'आस्रव' कहते है । मन-वचन-कायकी यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उसमे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कर्मका आस्रव होता है । तदनुसार ही बन्ध होता है। इस तरह कर्म शुभ-अशुभके भेदसे दो भागोंमे बॅटा रहता है। शुभ कार्य करनेकी जिसमे प्रकृति ( स्वभाव-शीलता) होती है उसे शुभकर्म अथवा पुण्यप्रकृति और अशुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे अशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते है। शुभाऽशुभ भावोकी तरतमता और कषायादि परिमारणाकी तीव्रता-मन्दतादिके कारण इन कमप्रकृतियोमे बराबर परिवर्तन ( उलटफेर ) अथवा सक्रमण हुआ करता है । जिस समय जिस प्रकारकी कर्मप्रकृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्रायः उन्हींके अनुरूप निष्पन्न होता है। वीतरागदेवकी उपासनाके समय उनके पुण्यगुणोका प्रेम पूर्वक स्मरण एव चिन्तन करने और उनमे अनुराग बढ़ानेस शुभ भावो (कुशलपरिणामों) की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्य
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www.arwwwmar- -
वीतरागसे प्रार्थना क्यों ?
२३ - की पापपरिणति छूटती और पुण्यपरिणति उसका स्थान लेती है । नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियोका रस (व्यनुभाग) सूखता और पुण्यप्रकृतियोंका रस बढ़ता है। पापप्रकृतियो का रस सूखने और पुण्यप्रकृतियोंमे रस बढ़नेसे 'अन्तरायकर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पापप्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ( शक्ति-बल ) में विघ्नरूप रहा करती है-उन्हे होने नहीं देती-वह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्ट कार्यको बाधा पहुँचानेमें समर्थ नहीं रहती। तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध होजाते है, बिगडे हुए काम भी सुधर जाते हैं और उन सबका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है । इसीसे स्तुति-वन्दनादिको इष्टफलकी दाता कहा है; जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकादिमें उद्धृत एक प्राचार्य महोदयके निम्न वाक्यसे प्रकट है
नेष्ट विहन्तु शुभभाव-भग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः। तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकदाऽर्हदादेः॥
जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्ट फलको देनेवाले है और वीतरागदेवमे कर्तृत्व-विपयका आरोप सर्वथा अमंगत तथा व्यर्थ नहीं है, बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार मंगत और सुघटित है—वे स्वेच्छा-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे कर्ता न होते हुए भी निमित्तादिकी दृष्टि से कर्ता ज़रूर है और इसलिये उनके विषयमे अकर्तापनका सर्वथा कान्तपक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विपयक अथवा ऐसी प्रार्थनाओंका किया जाना भी असगत नहीं कहा जा सकता जो उनके सम्पके तथा शरणमे आनेस स्वयं सफल होजाती है अथवा उपासना एवं भक्ति के द्वारा सहज-साध्य होती है।
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समन्तभद्र - विचार - दीपिका
इस विषय में स्वामी समन्तभद्रका स्वयंभू स्तोत्रगत निम्न वाक्य खास तौर से ध्यान में लेने योग्य हैस्वदोष - शान्त्या विहितात्म- शान्तिः शान्तोबिंधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥
इसमे बतलाया है कि वे 'भगवान् शान्तिजिन मेरे शरण्य हैमै उनकी शरण लेता हूँ- जिन्होने अपने दोपोकी - अज्ञान, मोह तथा राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विकारोकी शान्ति करके आत्मामे परमशान्ति स्थापित की हे पूर्ण सुख स्वरूप स्वाभाविकी स्थिति प्राप्त की है और इसलिये जो शरणागतोंको शान्तिके विधाता है - उनमे अपने आत्मप्रभाव से दोपोकी शान्ति करके शान्ति-मुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति सुखरूप परिणत करने में सहायक एव निमित्तभूत है । अत (इस शरणागति के फलस्वरूप ) शान्तिजिन मेरे संसार - परिभ्रमणका अन्त और सासारिक क्लेशी तथा भयोकी समाप्ति कारणभूत होवे ।'
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यहाॅ शान्ति - जिनको शरणागतो की शान्तिका जो विधाता (कर्ता) कहा है उसके लिये उनमें किसी इच्छा या तदनुकूल प्रयत्नके आरोप की जरूरत नहीं है, वह कार्य उनके 'विहितात्मशान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार होजाता है जिस प्रकार कि अग्निक पास जानेसे गर्मीका और हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुॅचनेसे सर्दीका संचार अथवा तद्रूप परिणमन स्वय हुआ करता है और उसमे उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिक-जैसा कोई कारण नहीं पड़ता । इच्छा तो स्वय एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वय स्वामीजीने उक्त स्तोत्रमे "अनन्तदोपाशयविग्रह " ( ६६ ) बतलाया है। दोषोकी शान्ति
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वीतरागसे प्रार्थना क्यों ?
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होजानेसे उसका अस्तित्व ही नहीं बनता । और इसलिये देवमे बिना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है । इसी कर्तृत्वको लक्ष्यमे रखकर उन्हे 'शान्तिके विधाता' कहा गया हैइच्छा तथा प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टि से वे उसके विधाता नहीं हैं। और इस तरह कर्तृत्व- विषयमे अनेकान्त चलता है - सर्वथा एकान्तपक्ष जैनशासनमें ग्राह्य ही नहीं है ।
यहाॅ प्रसंगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पड़ता है कि उक्त पद्यके तृतीय चरण मे सांसारिक क्लेशो तथा भोकी शान्ति कारणीभूत होनेकी जो प्रार्थना कीगई है वह जैनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी स्पष्ट दर्शन नित्यकी प्रार्थनाम प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथामे पाया जाता हैदुक्ख-खो कम्म-खो ममाहिमरणं च बोहि - लाहो य । मम होउ तिजगबंधव ! तव जिणवर चरण- मरणेण ||
I
इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि - 'हे त्रिजगत के ( निर्निमित्त) बन्धु जिनदेव | आपके चरण-शरण के प्रसादसे मेरे दुःखोका क्षय, कर्माका क्षय, समाधिपूर्वक मरण और सम्यग्दर्शनादिकका लाभ होवे । इससे यह प्रार्थना एक प्रकार से आत्मोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूचित करती है कि जिनदेवकी शरण प्राप्त होनेसे - प्रसन्नतापूर्वक जिनदेव के चरणों का आराधन करनेसे -- दु.खाका क्षय और कर्मोका तयादिक मुखसाध्य होता है । यही भाव समन्तभद्रकी उक्त प्रार्थनाका है । इसी भाव को लेकर "मतिप्रवकः स्तुवताऽस्तु नाथ (२५) “भवतु ममाऽपि भवोपशान्तये” (१९१५) जैसी दूसरी भी अनेक प्रार्थनाएँ कीगई है। परन्तु ये ही प्रार्थनाएँ जब जिनेन्द्रदेवको साक्षात् रूपमे कुछ करने - करानेके लिये प्रेरित करती हुई जान पड़ती है तो वे अलकृत रूपको धारण किये हुए होती
रूप
יין
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका धारिणी प्रार्थनाओंके स्वयम्भूस्तोत्रगत कुछ नमूने इस प्रकार है
१. पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (५) २. जिन-श्रियं मे भगवान् विधत्ताम् (१०) ३. ममार्य ! देयाः शिवतातिमुच्चैः (१५) ४. पूयात्पवित्रो भगवान् मनो मे (४०) ५. श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः (७५) ये सब प्रार्थना चित्त को पवित्र करने, जिनश्री तथा शिवसन्ततिको देने और कल्याण करनेकी याचनाका लिये हुए है, आत्मोत्कर्प एवं आत्मविकासको लक्ष्य करके की गई है,इनमे असंगतता तथा असंभाव्य जैसी कोई बात नहीं है-सभी जिनेन्द्रदेवके सम्पर्क प्रभाव तथा शरणम आनेसे स्वयं सफल होनेवाली अथवा भक्ति-उपासनाके द्वारा सहज-साध्य है-और इसलिये अलंकारकी भाषामं की गई एक प्रकारकी भावना ही है।
वास्तवमे परमवीतरागदेवसं विवेकीजनकी प्रार्थनाका अर्थ देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है अथवा यो कहिये कि अलंकारकी भापामे मनःकामनाको व्यक्त करके यह प्रकट करना है कि 'वह आपके चरण-शरण एवं प्रभावमे रहकर और उससे कुछ पदार्थ पाठ लंकर आत्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुआ अपनी उस इच्छा कामना या भावनाको पूरा करनेमे समथ होना चाहता है। उसका यह प्राशय कदापि नहीं होता कि वीतरागदेव भक्तकी प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशक्ति एवं प्रयत्नाटिको काममे लाते हुए स्वय उसका कोई काम कर देगे, अथवा दूसरोसे प्रेरणादिकं द्वारा करा देगे। ऐसा आशय असंभाव्यको संभाव्य बनाने जैसा है और देवके स्वरूपस अनभिज्ञता व्यक्त करता है।
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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? पुण्य-पापका उपार्जन कैसे होता है कैसे किसीको पुण्य लगता, पाप चढ़ता अथवा पाप-पुण्यका उसके साथ सम्बन्ध होता है, यह एक भारी समस्या है, जिसको हल करनेका बहुतोंने प्रयत्न किया है। अधिकांश विचारकजन इम निश्चय पर पहुँचे है और उनकी यह एकान्त धारणा है कि -'दूसरोको दुख देने, दुख पहुँचाने, दुखके साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी नरह दुखका कारण बननेसे नियमत पाप होता है -पापका आस्रव-बन्ध होता है; प्रत्युत इसके दूसरोको सुख देने, सुख पहुँचाने, सुख के साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह सुखका कारण बननेसे नियमतः पुण्य होता है-पुण्यका आस्रवबन्ध होता है। अपनेको दुख-गुख देने आदिसे पाप-पुण्यके बन्धका कोई सम्बन्ध नही है।
दूसरोका इस विषयमे यह निश्चय और यह एकान्त धारणा है कि-'अपनेको दुख देने-पहुँचान आदिम नियमत. पुण्योपाजन और सुग्व देने आदिसे नियमत पापोपार्जन होता है-इसरो के दुख-सुखका पुण्य-पापके बन्धसे कोई सम्बन्ध नहीं है।'
स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिम ये दोनो ही विचार ए पक्ष निरे एकान्तिक होनेसे वस्तुतत्त्व नहीं है, और इसलिये उन्होने इन दोनोको सदोप ठहराते हुए पुण्य-पापकी जो व्यवस्था सूत्ररूपसे अपने 'देवागम' मे (कारिका २ से १५ तक ) दी है वह बड़ी ही मार्मिक तथा रहस्यपूर्ण है । आज इस विचारदीपिकामें वह सब ही पाठकोके सामने रक्खी जाती है।
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका प्रथम पक्षको मदोष ठहराते हुए स्वामीजी लिखते है :पापं ध्रुवं परे दुःखात्पुण्यं च सुखतो यदि ।
अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ १२ ॥ 'यदि परमे दुःखोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका होना निश्चित है-ऐसा कान्त माना जाय तो फिर अचंतन पदार्थ और अकपायी (वीतरागी) जीव भी पुण्य-पापस बधन चाहिये; क्योकि वे भी दूसरोमे गुग्व-दुखकी उत्पत्तिके निमित्तकारण होते है। ___ भावार्थ-जब परमं मुख-दुखका उत्पादन ही पुण्य-पापका एक मात्र कारण है तो फिर दृध-मलाई तथा विष-कण्टकादिक अचंतन पदार्थ, जो दूसरोके नुख-दुखक कारण बनते है, पुण्यपापके बन्धका क्यो नही? परन्तु इन्हें कोई भी पुण्य-पापके बन्धकर्ता नहीं मानता ---कोटा पैरमे चुभकर दूसरेको दुख उत्पन्न करता है, इतने मात्रस उसे कोई पापी नहीं कहता और न पापफलदायक कर्मपरमाणु ही उससे पाकर चिपटते अथवा बन्धका प्राप्त होते है। इसी तरह दव-मलाई बहुतोको आनन्द प्रदान करते है, परन्तु उनके इस आनन्दसे दृध-मलाई पुण्यात्मा नहीं कहे जाते और न उनमे पुण्य-फलदायक कर्म-परमाणुओका ऐसा कोई प्रवेश अथवा सयोग ही होता है जिसका फल उन्हे (दूधमलाईको) वाटको मांगना पड़े। इससे उक्त रकान्त सिद्धान्त स्पष्ट मदोप जान पड़ता है। ___ यदि ग्रह का जाय कि चेतन ही बन्धके योग्य होते है अचेतन नहीं, तो फिर कपाग-रहित वीतरागियोके विपयमे आपत्तिको कैसे टाला जागा? व भी अनेक प्रकारसे दूसरोके दुख-सुखके कारण बनते है। उदाहरण के तौर पर किसी मुनुक्षुको मुनिदीक्षा देते है तो उसके अनेक सम्बन्धियोको दुख पहुँचता है। शिष्यों
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तथा जनताको शिक्षा देते है तो उससे उन लोगोंको सुख मिलता है । पूर्ण सावधानी के साथ ईर्यापथ शोधकर चलते हुए भी कभी कभी दृष्टिपथसे बाहरका कोई जीव अचानक कूटकर पैर तले आ जाता है और उनके उस पैरसे दबकर मरजाता है । कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि कोई जीव तेजी से उड़ा चला आकर उनके शरीरसे टकरा जाता है और मर जाता हैं तो इस तरह भी उस जीवके मार्ग में बाधक होनमें वे उसके दुबके कारण बनते है । अनेक निर्जितकपाय ऋद्धिधारी वीतरागी साधुके शरीर के स्पर्शमात्र अथवा उनके शरीर को स्पर्श की हुई वायुके लगने से ही रोगीजन निरोग होजाते है और यथेष्ट मुखका अनुभव करते है । ऐसे और भी बहुतसे प्रकार है जिनमे व दुसरोके सुख-दुखके कारण बनते है । यदि दूसरोके मुख- दुखका निमित्त कारण बननेसे ही आत्मामे पुण्य-पापका सव-बन्ध होता है तो फिर ऐसी हालत मे वे कषाय-रहित साधु कैसे पुण्यपापके बन्धनसे बच सकते है ? यदि वे भी पुण्य-पापके बन्धनमे पड़ते है तो फिर निर्बन्ध अथवा मोक्षकी कोई व्यवस्था नहीं बन मकती, क्योकि बन्धका मूलकारण कषाय है। कहा भी है"कषायमूलं सकलं हि बन्धनम् ।" " सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्ध ।" और इसलिये कषायभाव मोक्षका कारण है । जब अकषायभाव भी बन्धका कारण हो गया तब मोक्षके लिए कोई कारण नहीं रहता । कारणके अभाव कार्यका अभाव हो जानेसे मोक्षका अभाव ठहरता है । और मोक्ष के अभाव में बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि बन्ध और मोक्ष जैसे सप्रतिपक्ष धर्म परस्परमे विनाभाव सम्बन्धको लिये होते है- एकके बिना दूसरेका अस्तित्व बन नहीं सकता, यह बात प्रथम लेखमे भले प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है । है । जब बन्थकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य-पापके
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बन्धकी कथा ही प्रलापमात्र हो जाती है । अतः चेतन प्राणियों की दृष्टिसे भी पुण्य-पापकी उक्त एकान्त-व्यवस्था सदोष है ।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि उन कपाय जीवोंके दूसरो को सुख-दुख पहुॅचाने का कोई संकल्प या अभिप्राय नहीं होता, उस प्रकार की कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषय मे उनकी कोई आमन्ति ही होती है, इसलिये दूसरोके सुख-दुखकी उत्पत्तिमे निमित्तकारण होनेसे वे बन्धको प्राप्त नहीं होते, तो फिर दूसरोंमे दुःखोत्पादन पापका और सुखोत्पादन पुण्यका हेतु है, यह कान्त सिद्धान्त कैसे बन सकता है ? - अभिप्रायाभावके कारण अन्यत्र भी दुखोत्पादन से पापका और सुखोत्पादन से पुण्यका बन्ध नहीं हो सकेगा, प्रत्युत इसके विरोधी अभिप्राय के कारण दुःखात्पत्तिम पुण्यका और सुखोत्पत्ति से पापका बन्ध भी होसकेगा । जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचाने के अभिप्राय से पूर्णसावधानीके साथ फोड़ेका ऑपरेशन करता है परन्तु फोड़ेको चीरते समय रोगीको कुछ अनिवार्य दुःख भी पहुँचाता है, इस दुःखके पहुँचनेसे डाक्टरको पापका वन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुःखविरोधनी भावनाके कारण यह दुःख भी पुण्य बन्धका कारण होगा । इसी तरह एक मनुष्य कषायभावके वशवर्ती होकर दुख पहुँचाने के अभिप्रायसे किमी कुबड़ेको लात मारता है, लातके लगते ही अचानक उसका कुबड़ापन मिट जाता है और वह सुखका अनुभव करने लगता है, कहावत भी हैं - "कुबड़े गुण लात लग गई" --तो कुबड़े के इस सुखानुभवसे लात मारने वालेको पुण्यफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती - उसे तो अपनी सुखविरोधिनी भावनाके कारण पाप ही लगेगा । अत प्रथमपक्ष वालोका यह एकान्त सिद्धान्त कि 'परमं सुख-दुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है' पूर्णतया सदोप है, और इसलिये उसे किसी तरह भी वस्तुतत्त्व नहीं कह सकते ।
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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ?
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अब दूसरे पक्षको दूषित ठहराते हुए आचार्य महोदय लिखते है
पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां य ज्यानिमित्ततः ॥ ६३॥ 'यदि अपने दुखोत्पादनसे पुण्यका और सुखोत्पादनसे पापका बन्ध ध्रुव हे - निश्चितरूपसे होता है ऐसा एकान्त माना जाय, तो फिर वीतराग (कपायरहित ) और किद्वान मुनिजन भी पुण्य-पापसे बँधने चाहिये, क्योकि ये भी अपने सुख-दुखकी उत्पत्ति के निमित्तकारण होते है ।'
भावार्थ- वीतराग और विद्वान मुनिक त्रिकाल - योगादिके अनुष्ठान द्वारा कायक्लेशादिरूप दु.खकी और तत्त्वज्ञानजन्य संतोपलक्षणरूप सुखकी उत्पत्ति होती है । जब अपनमे 'दुख-सुख के उत्पादनसे ही पुण्य-पाप बँधता है तो फिर ये अकषाय जीव पुण्य-पापके बन्धनसे कैसे मुक्त रह सकत है? यदि इनके भी पुण्यपापका ध्रुव बन्ध होता है तो फिर पुण्य-पापके अभावको कभी अवसर नही मिल सकता, और न कोई मुक्त होनेके योग्य हो सकता है - पुण्य-पापरूप दोनो बन्धो के अभाव के बिना मुक्ति होती ही नहीं । और मुक्ति के बिना पन्धनादिककी भी कोई व्यवस्था स्थिर नही रह सकती, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है। यदि पुण्य-पापके अभाव बिना भी मुक्ति मानी जायगी तो ससृतिके—– ससार अथवा सांसारिक जीवन के — अभावका प्रसंग आएगा, जो पुण्य-पापकी व्यवस्था माननेवालों में से किसीको भी इष्ट नहीं है । ऐसी हालत में आत्म-सुख-दुख के द्वारा पाप-पुण्यक वन्धनका यह एकान्त सिद्धान्त भी सदोष है ।
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अपने दुख मुखकी उत्पत्ति होने पर भी तत्त्वज्ञानी वीतरागियोंके पुण्य-पापका बन्ध इस लिये
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका
नहीं होता कि उनके दुख-सुखके उत्पादनका अभिप्राय नहीं होता, वैसी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषयमे आसक्ति ही होती है, तो फिर इससे तो अनेकान्त सिद्धान्तकी ही सिद्धि होती हैउक्त एकान्तकी नहीं । अर्थात् यह नतीजा निकलता है कि अभिप्रायको लिये हुए दुख-सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है, अभिप्रायविहीन दुख सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु नहीं हैं ।
अत उक्त दोनो एकान्त सिद्धान्त प्रमाण से बाधित है, इष्टके भी विरुद्ध पड़ते है, और इसलिये ठीक नही कहे जा सकते ।
इन आपत्तियो से बचने आदिके कारण जो लोग दोनो एकान्तोको अंगीकार करते है, परन्तु स्याद्वाद के सिद्धान्तको नहीं मानते - अपेक्षा अनपेक्षाको स्वीकार नहीं करते - अथवा अवाच्यतैकान्तका अवलम्बन लेकर पुण्य-पापकी व्यवस्थाको 'अवक्तव्य' बतलाते है उनकी मान्यता मे
“विरोधानोभयैकात्म्यं स्याद्वाद - न्याय - विद्विषाम् । श्रवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ।। "
इस कारिका (नं० ६४) के द्वारा विरोधादि दूषण देनेके अनन्तर, स्वामी समन्तभद्रने स्व- परस्थ सुख - दुःखादिकी दृष्टिसे पुण्य-पापकी जो सम्यक् व्यवस्था श्रर्हन्मतानुसार बतलाई है उसकी प्रतिपादक कारिका इस प्रकार है।
:--
विशुद्धि-संक्लेशाङ्ग ं चेत् स्व- परस्थं सुखाऽसुखम् । पुण्य-पापास्रवौ युक्तौ न चेद् व्यर्थस्तवाऽर्हतः ॥६५॥
इसमें बतलाया है कि -- 'अर्हन्तके मत में सुख-दुख आत्मस्थ हो या परस्थ - अपनेको हो या दूसरेको - वह यदि विशुद्धिका अंग है तो उस पुण्यास्रवका, संक्लेशका अंग है तो उस पापास्रवका हेतु है, जो युक्त है— सार्थक अथवा बन्धकर है - और यदि
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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ?
३३ विशुद्धि तथा संक्लेश दोनों से किसीका अंग नहीं है तो पुण्यपापमेंसे किसीके भी युक्त प्रास्त्रवका-बन्ध-व्यवस्थापक साम्परायिक श्रास्रवका-हेतु नहीं है । (बन्धाऽभावके कारण) वह व्यर्थ होता है-उसका कोई फल नहीं। ___ यहाँ 'संक्लेश' का अभिप्राय आर्त-रौद्रध्यानके परिणामसे है--"आर्त-रौद्र-ध्यानपरिणामः संक्लेशः” ऐसा अकलंकदेवने 'अष्टशती' टीकामें स्पष्ट लिखा है और श्रीविद्यानन्दने भी उसे 'अष्टसहस्री' में अपनाया है । 'संक्लेश' शब्दके साथ प्रतिपक्षरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण 'विशुद्धि' शब्दका अभिप्राय 'संक्लेशाऽभाव' है ("तदभावः विशुद्धिः" इत्यकलंक:)-उस क्षायिकलक्षणा तथा अविनश्वरी परमशुद्धिका अभिप्राय नहीं है जो निरवशेष-रागादिके अभावरूप होती है–उस विशुद्धिमे तो पुण्यपापबन्धके लिये कोई स्थान ही नहीं है । और इसलिये विशुद्धिका
आशय यहाँ आर्त-रौद्रध्यानसे रहित शुभपरिणतिका है। वह परिणति धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानके स्वभावको लिये हुए होती है । ऐसी परिणति के होनेपर ही आत्मा स्वात्मामे---स्वस्वरूपमेस्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने ही अंशोमे क्यो न हो। इसीसे अकलकदेवने अपनी व्याख्यामे, इस संक्लेशाभावरूप विशुद्धिको "आत्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्” रूपस उल्लिखित किया है। और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्य-प्रसाधिका विशुद्धि आत्माके विकासमं सहायक होती है, जब कि सक्लेशपरिणतिमे आत्माका विकास नहीं बन सकता-वह पाप-प्रसाधिका होनेसे अात्माके अधःपतनका कारण बनती है। इसी लिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है।
विशुद्धिके कारण, विशुद्धि के कार्य और विशुद्धिके स्वभावको 'विशुद्धिअंग' कहते है। इसी तरह संक्लेशके कारण, संक्लेशके कार्य तथा स्वभावको संक्लेशाङ्ग'कहते है । स्व-पर-सुख-दुःख यदि विशु
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समन्तभद्र-विचार-दीपिका द्विअंगको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-रूप शुभ-बन्धका और संक्लेशाङ्गको लिए हुए होता है तो पाप-रूप अशुभबन्धका कारण होता है, अन्यथा नहीं । तत्वार्थसूत्रमें, "मिथ्यादर्शनाऽविरतप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय-योगरूपसे बन्धके जिन कारणोंका निर्देश किया है वे सब संक्लेशपरिणम ही हैं, क्योंकि आर्त-रौद्रध्यानरूप परिणामोके कारण होनेसे 'संक्लेशाङ्ग' मे शामिल है; जैसे कि हिसादि-क्रिया संक्लेशकार्य होनेसे सक्लेशाङ्गमे गर्भित है । अतः स्वामी समन्तभद्रके इस कथनसे उक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है । इसी तरह 'कायवाड्मनःकर्म योगः', 'स श्रास्रवः', 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रोके द्वारा शुभकायादि-व्यापारको पुण्यास्रवका और अशुभकायादि-व्यापारको पापाखवका जो हेतु प्रतिपादित किया है वह कथन भी इसके विरुद्ध नहीं पड़ता; क्योंकि कायादि-योगके भी विशुद्धि और सक्लेशके कारण-कार्य-स्वभावके द्वारा विशुद्धित्व-संक्लेशन्वकी व्यवस्थिति है । संक्लेशके कारण-कार्य-स्वभाव ऊपर बतलाए जा चुके है; विशुद्धिके कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान उसके स्वभाव है और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है। ऐसी हालतमें स्व-पर-दुःखकी हेतुभूत कायादि-क्रियाएँ यदि संक्लेश-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो वे संक्लेशाङ्गत्वके कारण, विषभक्षणादिरूप कायादिक्रियाआकी तरह,प्राणियों को अशुभफलदायक पुद्गलोंके सम्बन्धका कारण बनती है; और यदि विशुद्धि-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो विशुद्धथङ्गत्वके कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादि क्रियाओंकी तरह, प्राणियोके शुभफलदायक पुद्गलोके सम्बन्धका कारण होती है । जो शुभफलदायक पुद्गल है वे पुण्यकर्म है,जो अशुभफलदायक पुद्गल है वे पापकर्म है, और इन पुण्य-पाप-कर्मोके अनेक भेद
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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ? हैं। इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिकामें संपूर्ण शुभाऽशुभरूप पुण्यपाप-कर्मोके आस्त्रव-बन्धका कारण सूचित किया है। इससे पुण्यपापकी व्यवस्था बतलानेके लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है । ___सारांश इस सब कथनका इतना ही है कि सुख और दुख दोनों ही, चाहे स्वस्थ हो या परस्थ-अपनेको हों या दूसरोंकोकथंचित् पुण्यरूप प्रास्रव-बन्धके कारण है, विशुद्धिके अंग होनेसे; कथंचित् पापरूप आस्रव-बन्धके कारण है, संक्लेशके अंग होनेसे; कथंचित् पुण्य-पाप उभयरूप प्रास्रव-बन्धके कारण है, क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेशके अंग होनेसे; कथंचित् अवक्तव्यरूप है, सहार्पित-विशुद्धि-संक्लेशके अंग होनेसे। और विशुद्धि-संक्लेशका अग न होने पर दोनों ही बन्धके कारण नहीं है। इस प्रकार नय-विवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्गसे ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती है-सर्वथा एकान्तपक्षका आश्रय लेनेसे नहीं । एकान्त पक्ष सदोष है; जैसाकि ऊपर बतलाया जाचुका है और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नहीं हो सकता।
महावीर प्रिंटिङ्ग सर्विस, १ अन्सारी रोड, दरियागज, देहली।
मुद्रक-सूर्य प्रिंटिग वर्क्स, देहली ।
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वीरसेवामंदिरके प्रत्युपयोगी प्रकाशन
(१) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश – श्रीपूज्यपादाचार्यकी प्रध्यात्म-विषयक दो अनूठी कृतिया, संस्कृत-हिन्दी टीकाभोसे अलकृत तथा मुख्तारश्री प्रस्तावनाये भूषित ( नया सस्कररण) पृष्ठ ३५२, सजिल्द ३) (२) जैन ग्रन्थ- प्रशस्ति-संग्रह – संस्कृत और प्राकृतके १७१ अप्रकाशित
थोकी प्रशस्तियोका मगलाचरण सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो, डाक्टर ए एन उपाध्याय एम. ए. के 'प्राक्कथन' और प० परमानन्द शास्त्रीकी इतिहास - साहित्य - विषयक परिचयको लिये हुए ११६ पृष्ठ की प्रस्तावनासे भूषित । पृष्ठ ४१६, सजिल्द ४ ) (३) स्वयम्भूस्तोत्र - समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपरिचय, समन्तभद्र - परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित २) (४) स्तुतिविद्या - स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोको जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारको महत्वकी प्रस्तावना से अलकृत, सुन्दर जिल्द - सहित 211) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड - पचाध्यायीके कर्ता कवि राजमल्लकी सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद - सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित 811) (६) युक्त्यनुशासन ---तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्रकी प्रसाधारणकृति, जिसका अभीतक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था । मुख्तार श्रीजुगलकिशोरके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलकृत १1) (७) सत्साधु - स्मरण - मगलपाठ - श्रीवीर - वर्द्धमान और उनके बादके २१ महान् आचार्योंके १३७ पुण्य स्मरणोका महत्वपूर्ण सग्रह, सयोक मुख्तार श्री जुगलकिशोरके हिन्दी अनुवादादि सहित 11) (८) सेवाधर्म-धर्मके मर्मको समझानेवाला मुख्तारश्रीका उत्तम निबन्ध मू० ) ।। प्रचारके लिये यह तथा अगली पुस्तक ७) प्रतिशत (६) परिग्रहका प्रायश्चित्त - मुख्तार श्रीका रूप मे शिक्षाप्रद सन्तवचनोको लिये हुए
पूर्व निबन्ध, परिशिष्टके
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