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समन्तभद्र-विचार-दीपिका रहस्य' नामक प्रकरणसे भी पाठक उसे जान सकते है। यहॉपर मै सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने वीतरागदेवके जिन पुण्य-गुणोके स्मरणकी बात कही है वे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि अात्माके अमाधारण गुण है, जो द्रव्यदृष्टिस सब आत्माओके समान होने पर सबकी समान-सम्पत्ति है और मभी भव्यजीव उन्हें प्राप्त कर मकते है । जिन पापमलोन रन गुणोको आच्छादित कर रक्खा है व ज्ञानावरणादि आठ कम है, योगवलसे जिन महात्माओने उन कममलोका दग्ध करके आत्मगुणोका पूर्ण विकास किया है व ही पूर्ण विकसित, सिद्धात्मा एवं वीतराग कह जाते है-शेष सब ममारी जीव अविकसित अथवा अल्पविकसितादि दशाओमे है
और वे अपनी आत्मनिधिको प्राय. भूले हुए है । सिद्धात्माओके विकसित गुणोपरसे व आत्मगुणोका परिचय प्राप्त करते है और फिर उनमे अनुराग बढ़ाकर उन्हीं साधनो-द्वारा उन गुणोंकी प्राप्ति का यान करते है जिनके द्वारा उन सिद्धात्माओने किया था। और इसलिये व सिद्धात्मा वीतरागदेव आत्म-विकासके इच्छुक संसारी
आत्माओके लिये ‘आदर्शरूप' होते है, आत्मगुणोके परिचयादिमें महायक होनेसे उनके 'उपकारी होते है और उस वक्त तक उनके 'आराध्य रहते है जबतक कि उनके आत्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जाय । इमीसे म्यामी समन्तभद्रने "तत स्वनि श्रेयमभावनापरेबंधप्रवेकैर्जिनशीतलड्यसे (म्ब ५०)" इस वाक्यके द्वारा उन बुधजन-श्रेष्ठो तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको आवश्यक बतलाया है जो अपने नि.श्रेयसकी-आत्मविकासकी-भावनाम मदा मावधान रहते है । और एक दूसरे पद्य 'स्तुति म्तातु साधोः' (म्ब० ११६) में वीतरागदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामो की हेत बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है । माथ ही, उसी स्तोत्रगत नीचेके एक पद्यमें