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वीतरागकी पूजा क्यों ? आत्मा मे विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी पूजा-वन्दना से श्राप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नहीं सकता, क्योकि आपके आत्मासे पैरभाव-द्वेपाश बिलकुल निकल गया है- वह उसमें विद्यमान ही नहीं है--जिसम क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्याका उद्भव हो सकता। एसी हालतमं निन्दा और स्तुति दोनो ही आपके लिये समान है -उनसे आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है । यह सब ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो
आपकी पूजा-वन्दनादि करत है उसका दूसरा ही कारण है, वह पृजा-वन्दनादि आपक लिय नहों-पापको प्रसन्न करक आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वारा आपको कोई लाभ पहुँचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्यगुणाका स्मरण-भावपूर्वक अनुचिन्तन -, जो हमारे चित्तको---- चिद्रप आत्माका-पापमलोस छुडाकर निमल एवं पवित्र बनाता है, और इस तरह हम उसक द्वारा अपने यान्माके विकासको साधना करते है । इसीसे पद्य उत्तरार्धमे यह सैद्धान्तिक घोपणा की गइ है कि 'आपक पुण्य-गुणाका स्मरण हमार पापमलस मलिन आत्माको निर्मल करता है-उसके विकास सचमुच महायक हाता है।
यहाँ पीतराग भगवानक पुण्य-गुग्गोके स्मरणम पापमलसे मलिन आत्माक निर्मल (पवित्र) होनकी जो बात कही गई है वह बड़ी ही रहम्यपूर्ण है, ओर उमम जनवमके आत्मवाद, कमवाद, विकासवाद और उपासनावाद-जैस सिद्धान्तोका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमे मनिहित है । इस विपयमे मैने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातत्त्व' और 'सिद्धिमोपान' जैसी पुस्तकोमे किया है स्वयम्भूम्तोत्रकी प्रस्तातनाके 'भक्तियोग और स्तुति-प्रार्थनादि