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समन्तभद्र-विचार-दीपिका हो। वे सदा ही पूर्ण प्रसन्न रहते है उनकी प्रसन्नतामे किसी भी कारणने कोई कमी या वृद्धि नहीं हो सकती। और जब पूजाअपृजासे वीतरागदेवकी प्रसन्नता या अप्रसन्नताका कोई सम्बन्ध नहीं-वह उसकेद्वारा समाव्य ही नहीं-तब यह तो प्रश्न ही पैदा नही होगा कि पूजा से की जाय, कव की जाय, किन द्रव्योम की जाय, किन मन्त्रो की जाय और उसे कौन करेकौन न कर ? और न यह शंका ती की जा सनाती है कि प्रविधिसं पूजा करने पर कोई अनिष्ट घटिन हो जायगा, अपवा किमी अधर्म-अमन-पावन मनुष्यके पृजा कर लेनेपर यह देव नाराज ह। जागना और उसकी नाराजगी उस सप्य तथा मनचे समाजको किनी वो कापका भाजन बनना पडेगा, क्योंकि ऐसी का करने पर वह देव पीनराग ही नहीं ठहरंगाउसके वीतराग हानेसे इनकार करना होगा और उसे भी दूसर देवी-देवताओकी तरह रागी-द्वेषी मानना पड़गा। इसीम अक्सर लोग जैनियोम कहा करते है कि-"जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासनाकी कोई जरूरत नहीं, कर्ता-हर्ता न होनसे वर किमीका कुछ देता-लता भी नही, तव उसकी पूजा-वन्दना क्यो की जानी है और उससे क्या नतीजा है ?"
इन सब बानोंको लयमें रखकर स्वामी समन्तभद्र, जो कि वीतरागदेवोको सबसे अधिक पूजाके योग्य समझते थे और स्वयं भी अनेक स्तुति-स्तोत्रो आदिके द्वारा उनकी पूजाम मदा मावधान एव नन्पर रहते थे, अपने स्वयंभूस्तोत्र में तिखते है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त-वैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः।।
अर्थात-हे भगवन् पूजा-वन्दनास आपका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योकि आप वीतरागी है-रागका अंश भी आपके