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________________ प्रकाशकके दो शब्द श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तार सरसावा (सहारनपुर) ने अपनी दिवंगता दोनो पुत्रियो सन्मती और विद्यावती की स्मृतिमे एक हजारकी रकम 'सन्मति-विद्या-निधि के रूपमे कुछ वर्ष हुए वीरसेवा-मन्दिरका सत्साहित्यक प्रकाशनाथ सुपुर्द की थी। उसी निधि से 'सन्मति-विद्या-प्रकाशमाला' चालू की गई, जिसका लक्ष्य है 'सन्मति जिनेन्द्रकी विद्याका-भगवान महावीरक तत्त्वज्ञान और सदाचारका-सहज-बाधगम्य-रीतिम प्रकाशम लाना । इस प्रकाशमालामे अब तक १ अनेकान्त-रस-लहरी, २ श्रीवाहुबलिजिनपूजा, ३ सेवाधर्म और ४ परिग्रहका प्रायश्चित्त नामकी चार पुस्तके क्रमश. प्रथम, तृतीय, चतुर्थ और पंचम प्रकाशके रूपम प्रकाशित हो चुकी है, द्वितीय प्रकाशका स्थान रिक्त था जिसकी पूर्ति 'समन्तभद्र-विचार-दीपिका' के इस प्रथम भाग-द्वारा कीजा रही है। इस पुस्तकके और भी भाग यथाममय निकाले जायेंगे । दूसरी शताब्दीके अद्वितीय विद्वान स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े तत्त्ववेत्ता आचार्य हो गये है जो अपने समयमे वीर-शासनकी हज़ार गुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हाए है, ऐसा एक पुरातन शिलालेखमे उल्लेख है । लोकहितकी दृष्टिसे उनके विचारोंको प्रचारमे लाकर विश्वमे फैलानेकी इस समय बड़ी ज़रूरत है। इसी दृष्टिको लेकर यह पुस्तक लिखी गई, प्रकाशित की गई और प्रचारकोक लिए मूल्य भी कम १४) रु. सैंकड़ा रक्खा गया है। आशा है समन्तभद्रके विचारों एवं तत्त्वज्ञानके प्रेमी इस पुस्तकके प्रचार और प्रसारमे यथेष्ट हाथ बटाएँगे और उससे दूसरे भागोंको भी शीघ्र प्रकाशमे लानेका अवसर प्राप्त होगा।
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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