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समन्तभद्र-विचार-दीपिका द्विअंगको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-रूप शुभ-बन्धका और संक्लेशाङ्गको लिए हुए होता है तो पाप-रूप अशुभबन्धका कारण होता है, अन्यथा नहीं । तत्वार्थसूत्रमें, "मिथ्यादर्शनाऽविरतप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः' इस सूत्रके द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय-योगरूपसे बन्धके जिन कारणोंका निर्देश किया है वे सब संक्लेशपरिणम ही हैं, क्योंकि आर्त-रौद्रध्यानरूप परिणामोके कारण होनेसे 'संक्लेशाङ्ग' मे शामिल है; जैसे कि हिसादि-क्रिया संक्लेशकार्य होनेसे सक्लेशाङ्गमे गर्भित है । अतः स्वामी समन्तभद्रके इस कथनसे उक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है । इसी तरह 'कायवाड्मनःकर्म योगः', 'स श्रास्रवः', 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रोके द्वारा शुभकायादि-व्यापारको पुण्यास्रवका और अशुभकायादि-व्यापारको पापाखवका जो हेतु प्रतिपादित किया है वह कथन भी इसके विरुद्ध नहीं पड़ता; क्योंकि कायादि-योगके भी विशुद्धि और सक्लेशके कारण-कार्य-स्वभावके द्वारा विशुद्धित्व-संक्लेशन्वकी व्यवस्थिति है । संक्लेशके कारण-कार्य-स्वभाव ऊपर बतलाए जा चुके है; विशुद्धिके कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान उसके स्वभाव है और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है। ऐसी हालतमें स्व-पर-दुःखकी हेतुभूत कायादि-क्रियाएँ यदि संक्लेश-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो वे संक्लेशाङ्गत्वके कारण, विषभक्षणादिरूप कायादिक्रियाआकी तरह,प्राणियों को अशुभफलदायक पुद्गलोंके सम्बन्धका कारण बनती है; और यदि विशुद्धि-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो विशुद्धथङ्गत्वके कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादि क्रियाओंकी तरह, प्राणियोके शुभफलदायक पुद्गलोके सम्बन्धका कारण होती है । जो शुभफलदायक पुद्गल है वे पुण्यकर्म है,जो अशुभफलदायक पुद्गल है वे पापकर्म है, और इन पुण्य-पाप-कर्मोके अनेक भेद