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पुण्य-पापकी व्यवस्था कैसे ?
३३ विशुद्धि तथा संक्लेश दोनों से किसीका अंग नहीं है तो पुण्यपापमेंसे किसीके भी युक्त प्रास्त्रवका-बन्ध-व्यवस्थापक साम्परायिक श्रास्रवका-हेतु नहीं है । (बन्धाऽभावके कारण) वह व्यर्थ होता है-उसका कोई फल नहीं। ___ यहाँ 'संक्लेश' का अभिप्राय आर्त-रौद्रध्यानके परिणामसे है--"आर्त-रौद्र-ध्यानपरिणामः संक्लेशः” ऐसा अकलंकदेवने 'अष्टशती' टीकामें स्पष्ट लिखा है और श्रीविद्यानन्दने भी उसे 'अष्टसहस्री' में अपनाया है । 'संक्लेश' शब्दके साथ प्रतिपक्षरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण 'विशुद्धि' शब्दका अभिप्राय 'संक्लेशाऽभाव' है ("तदभावः विशुद्धिः" इत्यकलंक:)-उस क्षायिकलक्षणा तथा अविनश्वरी परमशुद्धिका अभिप्राय नहीं है जो निरवशेष-रागादिके अभावरूप होती है–उस विशुद्धिमे तो पुण्यपापबन्धके लिये कोई स्थान ही नहीं है । और इसलिये विशुद्धिका
आशय यहाँ आर्त-रौद्रध्यानसे रहित शुभपरिणतिका है। वह परिणति धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानके स्वभावको लिये हुए होती है । ऐसी परिणति के होनेपर ही आत्मा स्वात्मामे---स्वस्वरूपमेस्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने ही अंशोमे क्यो न हो। इसीसे अकलकदेवने अपनी व्याख्यामे, इस संक्लेशाभावरूप विशुद्धिको "आत्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्” रूपस उल्लिखित किया है। और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्य-प्रसाधिका विशुद्धि आत्माके विकासमं सहायक होती है, जब कि सक्लेशपरिणतिमे आत्माका विकास नहीं बन सकता-वह पाप-प्रसाधिका होनेसे अात्माके अधःपतनका कारण बनती है। इसी लिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है।
विशुद्धिके कारण, विशुद्धि के कार्य और विशुद्धिके स्वभावको 'विशुद्धिअंग' कहते है। इसी तरह संक्लेशके कारण, संक्लेशके कार्य तथा स्वभावको संक्लेशाङ्ग'कहते है । स्व-पर-सुख-दुःख यदि विशु